Wednesday, March 10, 2010


उन्‍होंने पा ली हैं चाबियां और परदे
(अनिता वर्मा की कविता की किताब पढ़ते हुए...)
स‍ुनते हुए समय की सरसराहट
मैं झुका हुआ किताब पर
किताब मेरे घुटनों पर और
अपने पन्‍नों के बीच रखी हुई!
सुनते हुए समय की सरसराहट
मैं उम्र की लय का पीछा करता हूं
जिसे कविता अर्थों की ओस देती है
जिस कविता को पा लिया है उन्‍होंने.
एक जन्‍म में सब-
रोशनी, ज़ख्‍़म, फूल
सब कुछ.
इतना कुछ-
एक जन्‍म में!
उन्‍होंने पा ली है कविता,
जिससे वे वक्‍़त को ऊन के धागों से लपेटती हैं.
उन्‍होंने पा ली हैं चाबियां और परदे,
और उन्‍होंने सीख लिया है
दरवाज़ों को खोलना, ढांपना दरीचों को
उन्‍होंने पा‍ लिया है रोशनी का रेशम,
जिससे अंधेरों के घाव सिए जाते हैं- अंधेरों के ठंडे फ़ाहे!
उन्‍होंने पा लिए हैं तारे, जो आकाश में झरोखे हैं दूधिया नींद के
और समय, बिखरा हुआ आकाश में तारों ही की तरह.
जबके सांसों का सरौता चलता है
और रूई की तरह धुनकती जाती है रूह-
उनके पास है रात की नदी में डूबा हुआ चंद्रमा
जो नींद को धूसर स्‍वप्‍नों की परछाइयां बख्‍़शता है
और दु:ख, जो के एक प्रकाश है गहरा भूरा-नीला
आत्‍मा का रंग, आत्‍मा के रंगों का पनीला फैलाव,
दु:ख की पवित्र छाया और एक भीतरी उजास.
एक जन्‍म में सब-
सब कुछ,
इतना कुछ!
मैं अपने घुटनों पर से उठाता हूं कविता की किताब और
उसके पन्‍नों के बीच रख देता हूं
अपने होने की खोती हुई नदी.
उनके साथ जिंदगी के राज़ और दिलक़श हैं!