'नदी, पहाड़, फसल, किनारे
बादल, बस्ती, बचपन, बयारे'
यह सब और कुछ नहीं
चहरे है कहानियों मे।
और कथा एक गाँव है।
जिसे लेखक आबाद करता है ,
मिलो पृष्ठ उसमे बसता है
और वहा चिपकता है
कई चेहरे अपने इतिहास के।
वह चेहरे हे जेसे खोखल मे जमा बरसात का पानी,
लेखक की स्याही उसी पानी से बनी है
जबकि मै औ कोंध तुम्हारा पुजारी हूँ
इसलिए मै करता हूँ तुम्हारा आह्वाहन
बार बार, सालों से
क्योंकी मेरी कविता मुझमे कोंध सी प्रकट होती है
शब्दातीत, एक खालिस ध्वनी
सिर्फ एक तडकती गडगडाहट
जिसका कोई नाम नहीं
न ही कोई चेहरा
और कविता मे शब्द होते है
जेसे तेज़ बहते पानी पर बहती कागज़ की नावें
लव
Friday, May 25, 2012
Saturday, May 19, 2012
Saturday, May 5, 2012
वह नींद मै है...
जबतक वह नींद मे है
तब तक शोरगुल चुप्पी ओढ़े सो रहा है
और मस्ती थमी हुई गाडियों के साथ
आराम अरमा रही है
जबतक वह नींद मे है
भागमभाग स्टेंड पर खाड़ी
साईकिल कि तरह सुस्ता रही है
और सरे हठ सन्यासियों जेसी आंखे मूंदे
इच्छाओ के पर चले गए है
जबतक वह नींद मे है
शांति रानी बन बेठी है लेकिन
हर पाल उसे अपने राज पर
एक खतरा सा महसूस होता है
और बंद पलकों पर टिका
उसका सिंहासन डोलता रहता है
जबतक वह नींद मे है...
--हेमंत देवलेकर
जबतक वह नींद मे है
तब तक शोरगुल चुप्पी ओढ़े सो रहा है
और मस्ती थमी हुई गाडियों के साथ
आराम अरमा रही है
जबतक वह नींद मे है
भागमभाग स्टेंड पर खाड़ी
साईकिल कि तरह सुस्ता रही है
और सरे हठ सन्यासियों जेसी आंखे मूंदे
इच्छाओ के पर चले गए है
जबतक वह नींद मे है
शांति रानी बन बेठी है लेकिन
हर पाल उसे अपने राज पर
एक खतरा सा महसूस होता है
और बंद पलकों पर टिका
उसका सिंहासन डोलता रहता है
जबतक वह नींद मे है...
--हेमंत देवलेकर
Friday, May 4, 2012
शहर झूट बोलता है
चाँद एक उदास जलतरंग है
जलतरंग का एक बड़ा सा कटोरा
और चांदनी उससे बहता
एक उजाड़-सा राग है
साँझ की शाखों मे समाहित हो चूका है
दिवस का सारा कोतुहल
इसलिए पत्तियां अब महज़ पर्छाइयाँ भर है
जिस पर दिपती है उजाड़ राग की प्रतिछाया
सच मे चाँद इतिहास का सबसे उदास प्राणी है
वोह बंजारों के उदास गीत गता है
अपना मुंडा हुवा सर टहनियों से टिकाए
गोया शहर झूट बोलता है
उसकी व्यस्तता उसका प्रबल ढोंग है
वह उदास चाँद को देखता नहीं जानकर
जानकर नहीं सुनता उसका गीत
शहर इस कदर व्यस्त है
कि अपनी व्यस्तताओ से वह एक दिन
मनो पा जायेगा सत्य को
वह जानकर नहीं देखता ...
उसे अपनी रिक्तता का आभास है
शायद इस लिए!
किन्तु वह जतलाना नहीं चाहता खुदको भी
शायद उसे डर है
कि कही वह चटख न जाए उसका
भ्रम का आईना
एक रात जब सो चुकी थी सारी गलियां
और चोराहे
स्ट्रीट लेम्प जो मोहल्लो कि आंखे है
किसी रात के चोकीदार कि तरह उंघ रही थी
खुलती और झपकती थी उसकी पलके
और फिर बंद हो जाया करती
और रात के वैभव से परेशान कुत्ते
उसे अपनी भोंक से जगाने की
कोशिश मे थे निरंतर
उसी रात अपनी दोमुंही छत से तकते हुवे
मेने देखा
बंधा हुवा किसी जादू से शहर चुपके से चला जा रहा है
उस उजाड़ राग की आवाज़ के पीछे-पीछे
उस रात के कुछ आखरी पहरों मे
शहर अपनी गलियों को छोड़ जाता है
शहर अपना दम रोक लेता है
थाम देता है अपनी नब्ज़ की थरथाराह्टो को
और चाँद के गले मे हाथ डाले
चाँद के साथ
निकल पड़ता है शहर छोडती सुदूर राहों पर
--लव वर्मा
जलतरंग का एक बड़ा सा कटोरा
और चांदनी उससे बहता
एक उजाड़-सा राग है
साँझ की शाखों मे समाहित हो चूका है
दिवस का सारा कोतुहल
इसलिए पत्तियां अब महज़ पर्छाइयाँ भर है
जिस पर दिपती है उजाड़ राग की प्रतिछाया
सच मे चाँद इतिहास का सबसे उदास प्राणी है
वोह बंजारों के उदास गीत गता है
अपना मुंडा हुवा सर टहनियों से टिकाए
गोया शहर झूट बोलता है
उसकी व्यस्तता उसका प्रबल ढोंग है
वह उदास चाँद को देखता नहीं जानकर
जानकर नहीं सुनता उसका गीत
शहर इस कदर व्यस्त है
कि अपनी व्यस्तताओ से वह एक दिन
मनो पा जायेगा सत्य को
वह जानकर नहीं देखता ...
उसे अपनी रिक्तता का आभास है
शायद इस लिए!
किन्तु वह जतलाना नहीं चाहता खुदको भी
शायद उसे डर है
कि कही वह चटख न जाए उसका
भ्रम का आईना
एक रात जब सो चुकी थी सारी गलियां
और चोराहे
स्ट्रीट लेम्प जो मोहल्लो कि आंखे है
किसी रात के चोकीदार कि तरह उंघ रही थी
खुलती और झपकती थी उसकी पलके
और फिर बंद हो जाया करती
और रात के वैभव से परेशान कुत्ते
उसे अपनी भोंक से जगाने की
कोशिश मे थे निरंतर
उसी रात अपनी दोमुंही छत से तकते हुवे
मेने देखा
बंधा हुवा किसी जादू से शहर चुपके से चला जा रहा है
उस उजाड़ राग की आवाज़ के पीछे-पीछे
उस रात के कुछ आखरी पहरों मे
शहर अपनी गलियों को छोड़ जाता है
शहर अपना दम रोक लेता है
थाम देता है अपनी नब्ज़ की थरथाराह्टो को
और चाँद के गले मे हाथ डाले
चाँद के साथ
निकल पड़ता है शहर छोडती सुदूर राहों पर
--लव वर्मा
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