Wednesday, September 30, 2009

एलिस इन दि वंडर लैण्ड यादो मे






एलिस की कहानी मुझे याद नही पर उसके किरदार ने मुझे दुनिया मै सबसे जादा प्रभावित किया हे
तो एलिस की यादो के तोर पर उसकी कुछ तस्वीरे और स्केच यहाँ अपने ब्लॉग पर डाल रहा हूँ
एलिस का किरदा को मेने अपने पहले प्यार मै देखा था vओ बरसो तक मेरे गहरे अवचेतन मै दबा रहा और आज वो पहली बार मेरे सामने खिला हे
११/९/२००९ मैमुझे पहली बार हे ख्याल मै आया की ये जो साया बरसो से मेरे पीछे था वो एलिस का था

सोच के बीचोबीच एक अबाबील आकर गिरती है


दोपहर के बाद दफ़्तर अपनी दीवारें बदलता है
ढहता है एक अधूरा पुल और निशानदेही के साथ
काटे जाते हैं दिन के दरख्‍़त
मैं एक गुलाबी रंग को एक गुलाबी रंग की तरह
पहचानने से इनकार करता हूं
आलपिनों से छिदे हुए क्षितिज पर केंचुल की तरह
मैं टांगता हूं अपनी उतरी हुई परछाइयां
एक किताब के बीच कोई मकड़ी दबकर मर जाती है
और मैं मकड़ी के जालों से बुनी
किताब की जिल्‍दें उधेड़ने लगता हूं
ठीक समय पर सुबह किसी सायरन की तरह बजती है
और मैं सांसों की खोह में सायरन की चेतावनी का
कविता की शक्‍़ल में ग़लत तर्जुमा करता हूं
सांसों की वो खोह बहुत गहरी है सांप के पेट की मानिंद
जो मुझे निगलती है और मैं अस्थियों का मुकुट पहने डूबता रहता हूं
एक आवाज़ मेरी डेस्‍क पर आकर गिरती है
जिसे मैं दस हाथ की दूरी से देखता हूं
भौंहों की धुंध के बीच औंधी पड़ी रहती हैं संगीन चुप्‍पी की तश्‍तरियां
अंधेरे में उसके चश्‍मों के शीशे उसकी आंखों से ज्‍़यादा चमकते हैं
मैं उसे सोचता हूं और सोच के बीच एक अबाबील आकर गिरती है
जिसे मैंने कभी उसके असंभव समुद्र में
नक्‍़शों से लदी किसी नाव की तरह पहचाना था
एक गुंजाइश और एक ट्रेन मेरी नज़र के सामने से छूट जाती है
मैं पटरियों से उसके छूट जाने के निशान नहीं मिटाता
शल्‍कों और शैवालों से भरा एक दरिया मेरे भीतर से होकर गुज़रता है
मैं वमन करता हूं विचार और निगलता हूं सीढियां और सड़कें
मेरी पीठ पर एक गिरगिट रेंगता है, और वो है मेरा वक्‍़त
शहर के चौराहे पर ट्रैफिक महक़मे का रंगरूट
नई गाली ईज़ाद करता है और मैं उसे ज़रूरी चीज़ों के बीच
एक हिदायत और एक नुस्‍ख़े की तरह नत्‍थी कर देता हूं
दुनिया के अंतिम पत्‍थर के पास
मुझे एक रक्‍तरंजित देवता का शव मिलता है
मैं उसके झुलसे हुए पंख देखता हूं और मेरी आंखें
झाडियों में गेंद की तरह गुम जाती हैं
मैं उन्‍हें ढूंढता नहीं, न शव की शिनाख्‍़त करता हूं
इस दौरान अख़बारों के रोज़नामचों से
हटाई जाती रहती हैं ख़बरें और दीगर तफ़सीलें
जिनके अंतराल में चींटियों की एक क़तार अंडे देती है
और हमेशा चुप रहती है अपनी इस हरकत तक के बाबत
और रेंगती रहती है, रेंगती रहती है
सब कुछ के इस तरफ़ एक उधड़ी लकीर बुनती हुई
जिससे पैबंद सिए जाते हैं, जो और कुछ नहीं
मृत देवता के ज़ख्‍़मों की ही एक नई नुमाइश थे...
12 मई, 2009

Sunday, August 16, 2009

एक दोस्त के बरसो बाद मिलने पर


मुझे पता न था
की जिंदगी इतनी रंगीन है
जितनी की अमावस की राते होती है
वहा ओझल हे सरे रंग,घुले हुवे है वही कही
अंधकार की सासों मे.

वोह वहा केद है या अज़ाद है मुझे नही पता,
पर मुझे पता है की वो सरे वाही के वही है.इसी तरह
मुझे पता था की ओझल हो तुम भी,
इन्ही रंगों की तरह कही न कही,
पर पता नही था की ये रंग कालिमा की खोह तोडके
इतनी जल्दी खिलकर मुझपर बरस जाएगे

वो स्पेस! तुम्हारे और मेरे मिलने के बिच का
उस तिन मिनटों के स्पेस मे
तुमसे हाथ मिलाना
किसी बिछडे दोस्त से हाथ मिलाना भर ही न था
फकत किसी हसी लम्हे से हाथ मिलाना था

वोह वक्त जिसमे तुम और मे मिले थे
और "तुम्हारी अखो ने मुझे देखा
और यकीं न किया खुदपर"
उस वक्त उस घड़ी को अब मै दिल के हरे कोने मे
ले जाके कही बों दुगा
उस के अंकुर को उगने दुगा, उस के फूलो को मै खिलने दू उगा

उस के उगने के इन्तिज़ार में मै
तुमसे मिलने के इन्तिज़ार मे मै

Tuesday, June 30, 2009

एक गंदिली दलदल के पानी-सा
एक दलदल जो खुदमे धसी है
न रहना चाहती है
न बह सकती है
अपने ही ऊपर बिछे आकाश से मोहित वो दलदल
स्वच्छंद आकाश को टकटकी बाँध कर देखती है
मनो कहता है ''आकाश ,रंग बदलता यह बड़ा सा-टुकडा
कभी बदलो से ढका कभी सूर्य का मुखडा ''

अपनी आसुओ की भाप से मोम की अभिलाशाओ को पिघलता जाता है
धसता जाता है आकाश होने की आशाओ को
और एक आकाश एक दिन कीचड़ मे धस जाता है


बस एक कर्तव्य के मानिंद
वह खुश है
अपनी गुमसुम मुस्कान के साथ
हर क्षण कुछ-कुछ खोजती आखो के साथ
हर बात पर खिलखिलाते जेनुक के साथ
और मेरे साथ
वोह सिखाता है की
''इस दुःख भरी दुनिया मे खुश रहना भी एक कर्तव्य है ''

अपनी प्रार्थनाओ के परिंदे उडाता है
अपने दोस्तों की आखो मे झाककर
स्नेह से हर्षाता है
मिलेना की मुस्कान के शितीग पर मे उसके इंतज़ार में हु

लगता है काफ्का की कब्र पर मै आज मै उग आया हु
एक घास के नन्हे तिनके की तरह
और उसकी कब्र की मिटटी को ताउम्र गिला रखुगा
अपनी ओठ मे जमे ओस के पानी से

.........................................................................
५-२-०९ को रात ३-००बजे


काफ्का से सराबोर होकर

Sunday, June 14, 2009

लोर्का के लोक गीत



  1. जब चांद उगता हैघंटियाँ मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैंऔर दुर्गम रास्ते नज़र आते हैंजब चांद उगता हैसमन्दर पृथ्वी को ढक लेता हैऔर हृदय अनन्त मेंएक टापू की तरह लगता हैपूरे चांद के नीचेकोई नारंगी नहीं खातावह वक़्त हरे और बर्फ़ीले फलखाने का होता हैजब एक ही जैसेसौ चेहरों वाला चांद उगता हैतो जेब में पड़े चांदी के सिक्केसिसकते हैं !अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे
  2. ................................................................................................................................................

    गुलाब ने सुबह नहीं चाही अपनी डाली पर चिरन्तनउसने दूसरी चीज़ चाहीगुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहेसाँप और स्वप्न की उस सीमा से दूसरी चीज़ चाहीगुलाब ने गुलाब नहीं चाहाआकाश में अचलउसने दूसरी चीज़ चाही !

    ....................................................................................................................................................

    लकड़हारे मेरी छाया काटमुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा सेमुक्त कर !मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ ?दिन मेरी परिक्रमा करता हैऔर रात अपने हर सितारे मेंमेरा अक्स फिर बनाती हैमैं ख़ुद को देखे बग़ैर ज़िन्दा रहना चाहता हूँऔर सपना देखूंगाकि चींटियाँ और गिद्ध मेरी पत्तियाँ और चिड़ियाँ हैंलकड़हारे मेरी छाया काटमुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा सेमुक्त कर !

    ...............................................................................................................................................

    पहाड़ियाँ चाहती हैं पानी हो जायेंऔर पीठ में खोजती हैं वेटिकने के लिएसितारे

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Saturday, April 25, 2009

(लोर्का के लिए) शुशोभित की पोएम

चिनार के दरख्‍़त चुप हैं फ़ेदरीको...
(लोर्का के लिए)
तुम्‍हारी कविताओं की सरहद जहां तक पहुंचती है फ़ेदरीको
उतने ही बड़े साबित हुए हैं तुम्‍हारे पैर
ठहरे हुए और शोक में डूबे जूतों में दुबकी मौत
और काले गोश्‍त के कंधे को नंगे पैर लांघते
देहातियों के सूखे-दरारोंवाले चेहरों पर
लाल शराब की नशीली आंच की मानिंद फैल गए तुम
और तब्‍दील हो गए धरती की कड़वी और
हड्डियों तक छेद देने वाली आवाज़ में
तुम्‍हारा नाम एक परचम है फ़ेदरीको
गर्म-जवान ख़ून के धब्‍बों वाली
देहलीज़ पे लहराता परचम
जिस पे लिक्‍खा है- 'ला बाराका!'
तुम्‍हारे गीत औचक
गीली पत्तियों की तुर्श हवा में
कौंधते हैं
पानी की हर बूंद में
गितार के लोअर ऑक्‍तेव सरीखी
तुम्‍हारी आवाज़ को सूंघने की
कोशिश करते हैं हम
देज़ी के फूलों, मधुमक्खियों, धूसर मोतियों
और खिड़कियों से तारों का परदा हटाकर
ताकते हैं सीसे के आकाश में
अस्थिपंजरों के जबड़ों से सोने के दांत खींचकर
निकालने वाले हत्‍यारों को तुम
ज़ब्‍त नहीं हुए थे फ़ेदरीको
समुद्र की सलवटों पर सेब की तरह उछलते
छठे चांद की परछाई में कान लगाकर
अब भी सुनते हैं हम
ठहाकों की शराब में डूबे
तुम्‍हारे जंगली बैलेड
तुम्‍हारा नाम लेकर पुकारने वाले
चिनार के दरख्‍़त उसी रोज़ से ख़ामोश हैं
जब विज्‍़नार में देहात की दीवार के क़रीब
गहरे उजाले की उड़ती चीलों के नीचे
तुम गिर पड़े थे किसी कटे पेड़ की तरह
किसी अंदालूसी गीत की जिंदादिल गूंज
मेंदोलिन की उदास ख़ामोशी में गुम गई थी
इस्‍पहानी धरती की छाती चीरते
इस्‍पात के हलों ने ठिठकते हुए देखी थीं-
उखड़ी जड़ें नहीं, बल्कि मृत देहें
कड़वे शहद में लथपथ
और मैं, तुम्‍हारी आवाज़ का हरकारा
लिहाफ़ में छुपी तुम्‍हारी चिट्ठियों को
अपनी ज़बान के उजाले में लेकर आता रहा महीनों
सर्दियों की लंबी रातों में
और अक्‍सर मैंने चाहा है ख़ासी कसक के साथ
एक चिट्ठी लिखना तुम्‍हारे नाम
लालच और ज़ुल्‍म की खिलाफ़त में गवाही जैसी
कविताओं और कठपु‍तलियों के हक़ में
31, आसेरा देल कासिनो, ग्रानादा की इबारत बांचते
मैं भटकता रहता अंधेरे में
सिएरा नेवादा के पहाड़ चुपचाप खड़े रहते
तुम्‍हारा कोई तयशुदा पता नहीं मिलता
और नीबू के फूलों की भाप में
ख़ामोश तैरते रहते वेलेनसियन खेत
गुलाब की राख उड़ती रहती
तुम दुनिया की तमाम नदियों के पुलों को
अपने बड़े-बड़े नंगे पांवों से लांघते
समुद्री घास की नशीली गंध में
गुम हो जाते हो फ़ेदरीको
और अपनी बेचैन रूह के उसी बेमाप कुंए से
हमें आवाज़ देते रहते हो हरदम
जिससे संत थेरेसा ने अपना भीतरी किला गढ़ा था
जबकि हमारी बहरी और हत्‍यारी सदी
चाक़ू की चमकीली धार पर महज़
लड़खड़ाते खड़ीभर रह सकी है

मिलेना की मुस्कान पर मै तुम्हारे इंतज़ार मै हु


काफ्का के लिए
एक गंदिली दलदल के पानी-सा
एक दलदल जो खुदमे धसा है
न रहना चाहता है
न बह सकता है
अपने ही ऊपर बिछे आकाश से मोहित वह दलदल
स्वच्छंद आकाश को टकटकी बाँध कर देखता है
मनो कहता है ''आकाश ,रंग बदलता यह बड़ा सा-टुकडा
कभी बदलो से ढका कभी सूर्य का मुखडा ''

अपनी आसुओ की भाप से मोम की अभिलाशाओ को पिघलता जाता है
धसाता जाता है आकाश होने की आशाओ को
और एक आकाश एक दिन कीचड़ मे धस जाता है


बस एक कर्तव्य के मानिंद
वह खुश है
अपनी गुमसुम मुस्कान के साथ
हर क्षण कुछ-कुछ खोजती आखो के साथ
हर बात पर खिलखिलाते जेनुक के साथ
और मेरे साथ
वोह सिखाता है की
''इस दुःख भरी दुनिया मे खुश रहना भी एक कर्तव्य है ''

अपनी प्रार्थनाओ के परिंदे उडाता है
अपने दोस्तों की आखो मे झाककर
स्नेह से हर्षाता है
मिलना की मुस्कान के क्षितीज पर मै उसके इंतज़ार में हु

लगता है काफ्का की कब्र पर मै आज मै उग आया हु
एक घास के नन्हे तिनके की तरह
और उसकी कब्र की मिटटी को ताउम्र गिला रखुगा
अपनी ओठ मे जमे ऑस के पानी से
५-२-०९ को रात ३-००बजे


काफ्का से सराबोर होकर

Thursday, April 23, 2009

डा.; मञ्जूषा गांगुली की कविता

तय है की मै
शुन्य ,हवा,रेत, और धुल
की जगह लपक मरती कोध भी हो सकती हु

बंद खिड़की के शीशे की
धुल पर
दमकेदार फुक भी हो सहती हु


पगलाए अनघड की तरह
कितने ही बीहड़ की शताब्दीया यहाँ से... वहा तक...

हिला सकती हु
ताकि
चोकने की बरी
सबके साथ मेरी भी हो

Sunday, April 19, 2009

mispod


Friday, April 10, 2009

Wednesday, April 8, 2009

ज़ोरबा होने का मतलब

मानव मै सुख की भावना निहित है इसलिए न्यायसंगत भी है... तोलोस्तोय के ये शब्द वहा चोट करते है जहा बड़ी का सबसे कमज़ोर औरखास मुहाना है, उसके बाद सारी गठे खुद ब खुद ढीली हो जाती है

एक प्रपात की आगे जाकर दो धराए बनी एक बनी ज़ोरबा दी ग्रीक दूसरी है ज़ोरबा दी बुद्धा

मई मानता हु की मई दूसरी भावना के गदा करीब हु जबकि पहली भावना मुझे मात्र आकर्षित करती है

मुरारी बापू एक प्रवचन ,मे कह रहे थे की पति अपनी पत्नी से प्रेम करता है पत्नी की वजह से नहीं अपमे ही प्रेम निहित है हम उसे क्रीऐट न्बाही कर सकते ज़ोरबा एक ऐसा तत्व है जो मानव मे पहले से है निहित है और हम सब इसलिए ओस्से जुड़े है ओपचारिकता वश हम यह न भी कह सके तो भी हम है .........................zorba

Monday, March 30, 2009

गोया हर पत्थर की नींद उसकी नींद हो और उसमे अपने अप्राप्त विन्यास के स्वप्न

नीरज अहिरवार भोपाल में रहते हैं। शिल्पकार हैं। भारत भवन के सिरेमिक सेक्शन में कार्यरत हैं। हाल ही में भोपाल की 'आलियां फ्रांस्‍वां' में उनकी कृतियों की नुमाइश हुई। यह २१ फरवरी से २३ फरवरी तक रही। यह उनकी दूसरी एकल नुमाइश थी। इस पर मेरे मित्र सुशोभित सक्तावत ने एक टिप्पणी भेजी है। उसे साभार यहां दे रहा हूं।
गोया हर पत्‍थर की नींद उसकी नदी हो, और उसमें अपने ही अप्राप्‍त विन्‍यास के स्‍वप्‍न... लहरिल और लयपूर्ण सम्‍मोहन-सा रचते हुए. नीरज अहिरवार के काम के बारे में एकदम पहले-पहल यही बात लक्ष्‍य की जा सकती है. वो अपने स्‍पेस को 'वाइब्रेट' करता है...अपने माध्‍यम की नई संभावनाएं टटोलता हुआ जब वह किसी पदार्थ के नए आयाम अन्‍वेषित कर रहा होता है, तब भी यह लय अक्षुण्‍ण रहती है... एक गहरी आस्तित्विक लय से सम्‍पृक्‍त. तब नीरज और उसका काम अनिवार्य सम्‍वादी हो जाते हैं... उसमें 'डायलॉग' है और वो ख़ासा 'डायनेमिक' है...एक सम्‍वाद की लय...एक तरह का अन्‍य-सम्‍वादी किंतु आत्‍म-विन्‍यस्‍त उद्यम, जो पत्‍थरों की तराश पर पानी के अदृश्‍य हस्‍ताक्षर देखता-दिखाता है.
लेकिन प्रश्‍न उठता है कि सम्‍वाद की यह लय आती किधर से है... नीरज की शिल्‍पकृतियां किस भीतरी स्रोत से प्रतिकृत होती हैं? इसका उत्‍तर हमें स्‍वयं नीरज की विश्‍व-दृष्टि में तलाशना होगा. नीरज की नज़र में यह विश्‍व असमान आकारों का एक ऐसा समुच्‍चय है, जो समान प्रारब्‍ध को प्राप्‍त करता है. आरंभ और अंत इसके दो छोर हैं, जो उसे संतुलित करते हैं, और मध्‍य में है एक गहरी आस्तित्विक लय, जिसे वो 'जैविक चेतना' कहता है. गति जिसकी देह है...स्‍पंदन जिसका स्‍वरूप... और तब हर रूपाकार एक संकेत होता है, उस संभावना को लक्ष्‍य करता हुआ, जो स्‍वयं उसके भीतर सोई हुई होती है. यह अकारण नहीं कि नीरज की कृतियां ख़ुद अपने भीतर से 'उगती' हुई-सी लगती हैं. यह 'ऑर्गेर्निक स्‍कल्‍पटिंग' है... पत्‍थर का मांसल स्‍वप्‍न! नीरज सैंडस्‍टोन और सिरैमिक में काम करता है (उसके मुताबिक़ मार्बल ख़ासा 'ग्‍लेज्‍़ड' और 'पॉलिश्‍ड' माध्‍यम है). क्‍ले में भी उसने काम किया है, और बहुत थोड़ा-सा मेटल में. लेकिन वुड पर काम करने से वह कतराता है. वुड उसे चैलेंज नहीं करता. यहां भी उसकी जीवन-दृष्टि उसकी कला-चेतना बनती है. नीरज का सोचना है कि दरख्‍़त अपने आपमें एक जीवंत 'फ़ॉर्म' है (दरअसल, उसके ख़ुद के तमाम 'फ़ॉर्म' दरख्‍़तों से ही आते हैं), और उसे 'कार्व' करना ज्‍़यादती होगी. हां, उसे 'इंस्‍टॉल' ज़रूर किया जा सकता है, बिना उसकी जैविक लय में दख़ल दिए.
संगतराश गरचे लायक़ हो, तो मीडियम उसके हाथ में मोम की मानिंद पिघलता है. नीरज का काम भी इसी की गवाही देता है. उसके सिरैमिक के तमाम कामों में एक तरह का 'ऑर्गेनिज्‍़म' और मांसलता है. एक छोर पर माध्‍यम की सघन उपस्थिति, तो दूसरे छोर पर उसका गझिन अंतर्संगुम्‍फन. अपनी ड्राइंग्‍स में वह वस्‍तु-जगत के 'बीजत्‍व' को लक्ष्‍य करता है- उसके 'अंकुरण' और स्‍फुरण को. यहां भी- शैली वही है, और दृष्टि भी. लेकिन उसका श्रेष्‍ठ काम सैंडस्‍टोन पर है. वह आकृतिमूलक पर भी सधे हाथों से काम कर सकता है (उज्‍जैन की कालिदास अकादमी में उसकी 'शकुंतला' इसका जीवंत साक्ष्‍य है.), लेकिन यहां उसने अपना अमूर्तन का काम ही प्रदर्शित किया है. (ये अलग बात है कि बक़ौल नीरज- 'देखा जाए तो सभी आकार अमूर्तन ही हैं'). आकृतियों को, उनकी सघन अवस्थितियों को अतिक्रांत करता, और इसके बावजूद आकृतियों के नए-भीतरी आयाम सृजित-अन्‍वेषित करता अमूर्तन. इतना डायनेमिक काम, कि एक तरह से वो कला में हर तरह के जड़वाद का प्रत्‍याख्‍यान करता है और रूपाकार मात्र की स्‍वायत्‍तता की प्रतिष्‍ठा करता है. यह अकारण नहीं कि नीरज ने अपनी नुमाइश का शीर्षक भी 'फ़ॉर्म' ही चुना है... उसके लिए आकार मात्र ही आत्‍यंतिक है. मिजाज़ से बेतरतीब नीरज यह भलीभांति जानता है कि अमूर्तन में भी एक अनुपात होता है, और उस अनुपात को कभी नज़र से ओझल नहीं होने देता. उसकी कला की एक और ख़ासियत उसमें वैपरीत्‍यों का सहअस्तित्‍व है, जहां वह कोमलता और कठोरता, गतिकी और स्थिरता, टैक्‍सचर और फिनिशिंग, प्रारब्‍ध और मुक्ति- सभी को एक साथ लेकर आता है. उसके काम में डिटेल्‍स भी काफ़ी हैं, तो रिलीफ़ का समतलपन भी.
शनिवार से सोमवार तक अरेरा कॉलोनी स्थित 'आलियां फ्रांस्‍वां' की 'बे-मंशाई' दूधिया दीर्घाओं में नीरज की इन्‍हीं शिल्‍प और चित्रकृतियों का प्रदर्शन हुआ. नीरज की दूसरी सोलो एग्जिबिशन. रूपाकार की नामहीन-शीर्षकहीन स्‍वायत्‍तता में विश्‍वास रखने वाला नीरज ख़ुद यह पसंद करता है कि लोग उसकी शिल्‍पकृतियों को छूकर देखें और उनकी लय महसूस करें. वो कहता है कि स्‍कल्‍पचर मेरे लिए बाहर से ज्‍़यादा भीतर की चीज़ है. वह सामूहिक स्‍मृतियों की भी बात करता है, पत्‍थर जिनके प्रागैतिहासिक प्रतीक हैं. 'पत्‍थर जीवन की तरह हैं' -वह कहता है- 'उसमें रीटेक नहीं होता. आप पत्‍थर में कुछ जोड़ नहीं सकते, बस उस पर काम करते हुए उसका वॉल्‍यूमभर बढ़ा सकते हैं.' नीरज को स्‍कल्‍पचर्स की दैहिकता अपील करती है, उसके अनुसार चित्रों के मुक़ाबले यह अधिक ठोस और सार्वभौमिक संकेत-भाषा है. दरअसल, हर फ़ॉर्म की एक भीतरी भाषा होती है और हर माध्‍यम की भी, संगतराश को बस उसे सुनना होता है. नीरज के यहां ऐसे ही बोलते हुए, बहते हुए और उगते हुए रूपाकारों का समूचा संसार है.

Thursday, March 26, 2009

बाशो का हाइकू

मेरे घोडे को वहा ले चलो
जहा पंछी गाते है


बाशो अक बहुत ही साधारण जीवन जीता है
जंगल मे नदी किनारे उसकी झोपडी है उसमे वो
वाही बेठ कर अपने हाइकू लिखता है
वोह अक राजकुमार था जब उसके पिता का देहांत होवा तो
उसने कहा की मे अब यह राज्य छोड़ रहा हूँ
क्योकी एक दिन सभी मर जाएगे और बात रही इस राज्य की तो कोई नाकोई तो इसे सम्हाल ही लेगा

एक दिन मैभी मर जाउगा तो वो कहता है 'मेरे घोडे को वहा ले चलो जहा पंछी गाते है '


Saturday, March 7, 2009

फॉर मी


For Me,
Life is to understand,
By people and most importantly ourselves,
For Me,
Life do not cheat,
It is divine with its own kind,
A nature by which it surrounds us with tranquility yet chaotic we may find,
For me,
To understand and know is yet two different kinds,
By which the mystery we solved just taught us lessons,
Lessons we may learn along the way,
Happiness by which we may been blessed in our own specific way,
To know,
To see,
To feel..
Everything.....
Somehow,
We may neglected yet the simplest things in life,
To know people,
To see people,
To understand people,
To love people,
Very different matters but in the end ...
it all comes down to one.
Knowing people is to be friends with people,
Seeing people is by looking at their qualities and heart,
Understanding people is by accepting their characteristics,
Loving is giving our affection and caring.
A poem about life is divine,
Yet for me in its own kind,
Yet for me,
This Life..
Is me..
-Nadiah Kzaman Writes-

Friday, March 6, 2009

ज्य पाल सारता

सुकरात

सुकरात को सूफियों की भाँति मौलिक शिक्षा और आचार द्वारा उदाहरण देना ही पसंद था। वस्तुत: उसके समसामयिक भी उसे सूफी समझते थे। सूफियों की भाँति साधारण शिक्षा तथा मानव सदाचार पर वह जोर देता था और उन्हीं की तरह पुरानी रूढ़ियों पर प्रहार करता था। वह कहता था, ""सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।'
बुद्ध की भाँति सुकरात ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। बुद्ध के शिष्यों ने उनके जीवनकाल में ही उपदेशों को कंठस्थ करना शुरु किया था जिससे हम उनके उपदेशों को बहुत कुछ सीधे तौर पर जान सकते हैं; किंतु सुकरात के उपदेशों के बारे में यह भी सुविधा नहीं। सुकरात का क्या जीवनदर्शन था यह उसके आचरण से ही मालूम होता है, लेकिन उसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न लेखक भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं। कुछ लेखक सुक्रात की प्रसन्नमुखता और मर्यादित जीवनयोपभोग को दिखलाकर कहते हैं कि वह भोगी था। दूसरे लेखक शारीरिक कष्टों की ओर से उसकी बेपर्वाही तथा आवश्यकता पड़ने पर जीवनसुख को भी छोड़ने के लिए तैयार रहने को दिखलाकर उसे सादा जीवन का पक्षपाती बतलाते हैं। सुकरात को हवाई बहस पसंद न थी। वह अथेन्स के बहुत ही गरीब घर में पैदा हुआ था। गंभीर विद्वान् और ख्यातिप्राप्त हो जाने पर भी उसने वैवाहिक जीवन की लालसा नहीं रखी। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया। इसके दर्शन को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहला सुक्रात का गुरु-शिष्य-यथार्थवाद और दूसरा अरस्तू का प्रयोगवाद।
तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था।
सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा-
भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए है जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना? हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना।

Monday, March 2, 2009

I would like to share with you this increadible book that made a significant impact on my life: The Book of Mirdad by Mikhail Naimi. Here is an excerpt from the book:

MIRDAD: Love is the Law of God.

You live that you may learn to love.

You love that you may learn to live.

No other lesson is required of Man.

And what is it to love but for the lover to absorb forever the beloved so that the twain be one?

And whom, or what, is one to love? Is one to choose a certain leaf upon the Tree of Life and pour upon it all one's heart? What of the branch that bears the leaf? What of the stem that holds the branch? What of the bark that shields the stem? What of the roots that feed the bark, the stem, the branches and the leaves? What of the soil embosoming the roots? What of the sun, and sea, and air that fertilize the soil?

If one small leaf upon a tree be worthy of your love how much more so the tree in its entirety? The love that singles out a fraction of the whole foredooms itself to grief.

Sunday, February 15, 2009

on thus spok zarthustra

नीत्शे ने तीसरी इकाई मे जो भी कहा है "पिछली दुनिया का आदमी " वह रूडी वादियों के लिए कहा है वह उसे पिछली दुनिया का आदमी कहता है शुसोभित नै भी कुछ ऐसा ही अक बार लिखा था रूडीवादियों के लिए
इस दुनिया को वह एक "गुलाबी सपना" कहता है
दूसरी इकाई मे सोने के लिए ज़ोर देता है " सोना आम कला नही सोने के बाद आप दिन भर जाग सकते हो और मर्यादा वाले आदमी को कुछ देर अपनी मर्यादाओ को सोने के लिए अवकाश दे देना चाहिए "
गज़ब की बात यहाँ कही गई है क्योकि जो ठीक से सोता नही उसका जागरण भी नींद भरा होगा ओशो ने ज़ोरबा द ग्रीक मे भी यही कहते है