Tuesday, August 23, 2011

first poem

ladzUrh iZo ij

mRrjk;.k lq;Z dh Nko es

yky ihys gjs xqykch

jaxks dh ykS

mMrh gS ns[kks

vuk;l gh

;s lc phjdj ns[kuk pkgrh gS

vkdk'k dks

,d uhjZFkd iz;kl

dakp ls yFkiFk eak>s ls

vk’kkvks dh mMkus

'k.khd mYykl ds 'k.k ls ljkcksj

mMkus

vkt ds fnu

iraxs tsls ch[kjk gqok /kud

vj.; nj vj.;

'kgj nj 'kgj

isMks dh 'k[kks ij

vkdj yVd tkrk gks

10.1.2009

new poem

tsDlu ds ewu&okd ds fy;s


vkSj pakn ij f?klVrh tkrh gS os dne&rkys


rqEgkjs xhrks dk vlyh laxhr gsS

rqEgkjk u`R; vksSj rqEgkjh ?khlVrh gqb tkrh

dne&rkys

rqEgkjh eqnz, vkSj rqEgkjs eqOt+ gS vkd`rh;k

tks’k ds yid ejrs >qaM

rqEgkjh dne&rkys

ftUgksus vius b’kkjks ij nquh;j dks upk;k

vkSj rqEgkjh dne&rkys gs Fkifd;k

lfn;ks ls can

esjs fny dh f[kMdh ds fdokMks ij

vDlj gh os eq>s cqykrh gS

ckgj dh vksj

vkSj tc Hkh os eq>s iqdkjrh gS

;k Bd&Bdkrh gS njokt+k esjs fny dk

Rkc eSa mu lkjh f[kMdh;ks dks [kksy nsrk gq

vkSj lkjs fdokMks dks

>d>ksMrs gqos fudyrk gq ckgj

vius fxZn ls

vla[; ifjanks dh 'kDy

vkSj muds vla[; ijks dh QMQMkgV ysdj

cjl iMrk gq ml pakn ij

tkss lqZ[k gks pqdk gS

rqEgkjh inpki ds ?kZ"k.k ls

ogk ns[krk gq eSa

rqEgkjh djkg vkSj fp[kks ds

yky vkSj js’keh /kud

vkSj rqEgkjh vkg ds

ml vlj dks

tks fi/kykdj Qsykrk gs pakn dks mu ij

8.8.2011




vkSj pk

Sunday, February 27, 2011

''इन द पिनल कालोनी'' के बाबत




फ्रान्ज़ काफ्का
और
खुद को भेदता हुवा जाता है उसका लेखन
आत्मा के घूप्प अंधियारे तलो तक



''फ्रान्ज़ काफ्का'' मुझे कई बार यह नाम एक किवदंती-सा महसूस होता है, उसका चरित्र ही कुछ ऐसा है मनो वह प्राचीन रोम का कोई देवता हो... मनुष्य के भीतर अकारण ही व्याप्त उस व्यथा ,त्रासऔर यातनाओ का देवता
''काफ्का'' नाम के आह्वाहन मात्र से ही संपूर्ण मानवता के यातनाओ के भावर साक्षात् हो उठते है, उसका पीडाओ से भरा स्याह चेहरा नरख की ज्वाला के समान दहक उठता हे निसंदेह यह एक विलक्षित व्यक्ति का चरित्र-चित्रण है, विलक्षित इसलिए क्योकि काफ्का ने एक मूल्यवान खोज की है वह हे ''व्यक्ति के भीतर व्याप्त वह अज्ञात पीड़ा'', यह पीड़ा सदियों से एक आज्ञात चीज़ रही है और आदमी सदियों से इस यातना को जीता है मगर इसे समझ नहीं पा रहे है , गोया अपनी यातनाओ को देखते हुवे भी आदमी उसके प्रति अँधा बना रहता है और वह अकारण ही अँधा नहीं महज़ इसलिए क्योंकि वह कुछ कर नहीं पा रहा है अपने अंधेपन के खिलाफ लेकीन यहाँ सवाल उठता है की आखिर आदमी इतना पीड़ित हे क्यों ? क्योकि वह नहीं जनता कि आखिर वह यहाँ क्यों है । फ्योदोर दोस्तोवस्की भी एक जगह ऐसा ही सवाल उठाते है -:कि ''इश्वर ने आखिर हमें बनाया ही क्यों '' इसी सवाल का जवाब आदमी सदियों से खोज रहा है नीत्शे ने इस पीड़ा का बेहद गहरा द्य किया , इसे बेहद करीब से जाना-समझा और बदले कि भावना को लेकर उसने इश्वर कि हत्या कर दी, खंड-खंड कर दिया मानव चेतना मै बसी इश्वर कि प्रतिमा को और इसके बदले महामानवीय ज्योति को स्थापित किया , वाही दोस्तोवस्की ने ''रस्कोलनिकव''(क्राइम एंड पनिशमेंट) जेसे किरदार को जन्म दिया , लेकीन रस्कोल्निकाव अपनी मृत्यु तक इस पीड़ा को समझ नहीं पाया
तो एक महान कथाकार का यह तरीका होता है, सही मायनो मै एक थ्योरी जिससे जवाब कि ताकत के साथ ही सवाल कि गरिमा को भी समझा जा सके , एक किरदार आखिरकार अपने कथाकार कि गुत्थी को सुलझाने कि शमता और ताकत रखता है इस तरह कि कृति एक महान कथाकार का अत्त्म-मंथन होती है , जहा कभी-कभी तो उसके हाथ कुछ नहीं लगता और किरदार-कथाकार एक नेराश्च्य शरण को चले जाते है और कभी तो संभावनाओ के वृक्ष पर फल असंख्य मात्र मै फलीभूत होते हे पूर्वी दर्शन मे कई ऐसी कई कृतिया मिल के पत्थर सी स्थापित है
परन्तु पश्चिम मे नीत्शे और दोस्तोवस्की की तरह काफ्का भी अन्धकार मे बुझा हुवा दीपक लिए घूमते है (लेकीन बुझा दीपक आदमी कि नियति नहीं )लेकीन यह क्या ! आखिर काफ्का को वह मशीन मिल ही जाती है ? जो आदमी के जन्म से ही आदमी कि छाती पर अपने नुकीले पंजो के भर संहित उसे एक अनजाने दंड की सजा देती है ।
यही वह कलपुर्जा जो काफ्का को इतना महान बनता है। यह मशीन है काफ्का की लम्बी कहानी '' in the penal colony'' की । कहानी को पड़कर हमें यह ज्ञात होता हे की अंत: आदमी की कला उसके छुपे रहस्यों को साक्षात्य प्रदान करती है । यह बात पूरी तरह स्पष्टता के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन कहानी लिख चुकने के बाद ही या कहानी लिखते हुवे ही काफ्का को इसकी भीषणता का आभास हुवा होगा । इसलिए काफक का साहित्य मात्र रोचक व मनोरंजक न होकर एक गहरा आत्ममंथन हे।

Friday, February 25, 2011

Friday, February 18, 2011

कवी-मित्र नीलोत्पल के लिए




मित्र को पत्र-कविता


पतझड़ की तरह पुरे जंगल में,
बिखरी हुई
तमाम पत्तियों की तरह ,
तुम्हारी तरह ! काश
मेरे दोस्त
मै हर सित्म बिखर सकता ! मेरे दोस्त
लेकिन यह मेरे उदास होने का समय हे
यह समय ही कुछ ऐसा हे
और निसंदेह परिस्थितिया भी...
लेकिन फिर भी में दुखी नहीं हु
उदास हु ज़रा
कुछ शनो से कुछ शनो तक
लेकिन मुझे पता नहीं था
की यह शन इतना विराट होगा
फिर भी
निषेध की सर्दी मेरी तबियत नहीं
मै आशाओ के उनी वस्त्र पहनता हूँ
............................
एक अंधियारे समय मे जीता हूँ मे
जो मुझे सूर्योदय के मूल्यों को समझाता है
ओर समझाता हे चीजों को
और चीजों के वार्तुल ओर कोस्ठ्को के अंतर बाह्य दायरे ...
जो कई तरह की नविन प्रस्फुटन से भरपूर हे
मुझे लगता हे
इसी समझ के किनारे हम मिलेगे एक दिन
जिंदादिल (क्या शब्द कहा था तुमने )
बयारो के स्वागत में बिखरे-बिखरे

Sunday, February 13, 2011

लोर्का के गीत : अनुवाद विष्णु खरे




मालागुये
मोत शराबख़ाने में
आती-जाती है

काले घोड़े
और फ़रेबी लोग
गिटार के गहरे रास्तों
के बराबर चलते हैं

और समन्दर के किनारे
बुखार में डूबी गँठीली झाड़ियों से
नमक की और औरत के ख़ून की
बू आती है

मौत
आती और जाती है
आती और जाती है
मौत
शराबख़ाने की !

मालागुए-या= एक विशेष प्रकार के स्पानी नृत्य और गीत का नाम

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे-या / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का



..........................................................................................

नए गीत / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

तीसरा पहर कहता है-
मैं छाया के लिए प्यासा हूँ
चांद कहता है-
मुझे तारों की प्यास है
बिल्लौर की तरह साफ़ झरना होंठ मांगता है
और हवा चाहती है आहें

मैं प्यासा हूँ ख़ुशबू और हँसी का
मैं प्यासा हूँ चन्द्रमाओं, कुमुदनियों और झुर्रीदार मुहब्बतों से मुक्त
गीतों का

कल का एक ऎसा गीत
जो भविष्य के शान्त जलों में हलचल मचा दे
और उसकी लहरों और कीचड़ को
आशा से भर दे

एक दमकता, इस्पात जैसा ढला गीत
विचार से समृद्ध
पछतावे और पीड़ा से अम्लान
उड़ान भरे सपनों से बेदाग़
एक गीत जो चीज़ों की आत्मा तक
पहुँचता हो
हवाओं की आत्मा तक
एक गीत जो अन्त में अनन्त, दय के
आनन्द में विश्राम करता हो !

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु ख

..........................................................

चांद उगता है / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

जब चांद उगता है
घंटियाँ मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैं
और दुर्गम रास्ते नज़र आते हैं

जब चांद उगता है
समन्दर पृथ्वी को ढक लेता है
और हृदय अनन्त में
एक टापू की तरह लगता है

पूरे चांद के नीचे
कोई नारंगी नहीं खाता
वह वक़्त हरे और बर्फ़ीले फल
खाने का होता है

जब एक ही जैसे
सौ चेहरों वाला चांद उगता है
तो जेब में पड़े चांदी के सिक्के
सिसकते हैं !

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे
........................................................................

अलविदा / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का


अगर मैं मरूँ
तो छज्जा खुला छोड़ देना

बच्चा नारंगी खा रहा है
(छज्जे से मैं उसे देखता हूँ)

किसान हँसिए से बाली काट रहा है
(छज्जे से मैं उसे सुन रहा हूँ)

अगर मैं मरूँ
तो छज्जा खुला छोड़ देना !

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे

.......................................................

हर गीत


हर गीत
चुप्पी है
प्रेम की

हर तारा
चुप्पी है
समय की

समय की
एक गठान

हर आह
चुप्पी है
चीख़ की !

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे
.............................................................

गुलाब का क़सीदा / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

गुलाब ने सुबह नहीं चाही अपनी डाली पर चिरन्तन
उसने दूसरी चीज़ चाही

गुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहे
साँप और स्वप्न की उस सीमा से
दूसरी चीज़ चाही

गुलाब ने गुलाब नहीं चाहा
आकाश में अचल
उसने दूसरी चीज़ चाही !

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे
.........................................................
रोने का क़सीदा / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का
मैंने अपने छज्जे की खिड़की बन्द कर दी है
क्योंकि मैं रोना सुनना नहीं चाहता
लेकिन मटमैली दीवारों के पीछे से रोने के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता

बहुत कम फ़रिश्ते हैं जो गाते हैं
बहुत ही कम कुत्ते हैं जो भौंकते हैं

मेरे हाथ की हथेली में एक हज़ार वायलिन समा जाते हैं

लेकिन रोना एक विशालकाय कुत्ता है
रोना एक विराट फ़रिश्ता है
रोना एक विशाल वायलिन है

आँसू हवा को घोंट देते हैं
और रोने के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता !

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे
..........................................................

नारंगी के सूखे पेड़ का गीत / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का


लकड़हारे
मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर !

मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ ?
दिन मेरी परिक्रमा करता है
और रात अपने हर सितारे में
मेरा अक्स फिर बनाती है

मैं ख़ुद को देखे बग़ैर ज़िन्दा रहना चाहता हूँ

और सपना देखूंगा
कि चींटियाँ और गिद्ध मेरी पत्तियाँ और चिड़ियाँ हैं

लकड़हारे
मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर !


अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे
..........................................................

Thursday, February 10, 2011

ZORBA THE GREEK (14/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (13/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (12/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (11/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (10/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (9/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (8/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (7/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (6/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (5/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (4/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (3/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (2/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

ZORBA THE GREEK (1/14) - Mikis Theodorakis, Nikos Kazantzakis

Thursday, January 27, 2011

सुर बनकर विश्राम


पं भीमसेन जोशी जी को अर्पित काव्यांजलि
गता है मेरा मन
राग बहार
तुम्हारे मृत्यु-शोक मै भी
तुम्हे याद करके

उत्सवपूर्ण थी राग बहार की बंदिश
( कालियान्न संग करना रंगरली रे )
और उत्सव ही था तुम्हारा होना
हमारे लिए
और बड़ी अजीब सी बात है
यह भी तो
की रोक नहीं पा रहा है उत्सव
खुद को होने से
तुम्हारे मृत्यु-शोक मै भी

फ़िलहाल जो हो चूका हे
सदा के लिए मौन
उस कंठ की पुकार जगती हे
आज
भी
हमारे भीतर सोए नक्षत्रो को

और अब जबकी
हो चुकी हे फीकी
चमक देह की
और
हो चूका है उत्थान साँझ का
और देखो हो रहा हे
आगमन
सितारों का
अंतरिक्ष मै अनंत तक
इन्ही तारो के बिच से कही
सुनाई रही हे एक लहराती हुई
तान

मै देख सकता हु ,
वह अद्भुत तारा जा रहा हे देखो
अपनी अलबेली आवाज़ मै गाता हुवा
''बजे सरगम हर तरफ से सुर बनकर विश्राम ''

Saturday, January 15, 2011

विन्सेंट वान गौघ : प्रेम-रंगों का हठयोगी


''मेश्यो वन गौघ ! जागने का समय हो गया है !'
सोते हुवे भी विन्सेंट जेसे उर्सुला की आवाज़ का इंतज़ार कर रहा था ।''
यह कोण सी चीज़ थी , कांसा तत्त्व जो आदमी को नींद मे भी किसी की पुकार काइ लिए चेतन बने रखता है ... यह तो प्रेम है ! गी हाँ , विन्सेंट को प्यार हो गया था ।
इसके बाद प्रेम विन्सेंट से हर जगह टकराता हरा ...और विन्सेंट प्रेम-चोट को बार-बार सहता होवा अपने रंगों को केनवास पर तराशता रहा , प्रेम उसके रंगों के लीये प्रसाद था और इन दोनों का समांवेश करके विन्सेंट नेदुनिया के सबसे खुबसूरत सूरजमुखी न्बनाये , ऐसे सूरजमुखी जो अज भी खिले-खिले लगते है और निश्चित तोर पर उनमे वह अभ अज भी अंकित है जिसे विन्सेंट ने किसी समय मै अपने प्रेमपूर्ण ह्रदय मै महसूस किया होगा ।

''उर्सुला '' उर्सुला लेयर वह नाम है जिसने विन्सेंट को पहली बार प्यार के उपवनमै प्रवेश कराया , यह बात अलग है की प्रेम एकतरफा था । लेकिन पहला प्यार व्यक्ति के पुरे अस्तित्व पर .उसके व्यक्तित्व पर और यहाँ तक की देनिक क्रियाओ पर भी एक गहरा प्रभाव डालता है ।

यह लस्ट फॉर लाइफ का पहला अद्द्याय है और पहले अद्दयायकी पहली पांति मै विन्सेंट को प्रेम मे दर्शाया गया है जबकी इसी अद्य्याय के अंत मे विन्सेंट हिज्र का बाराती बन जाता है ।

उर्सुला उसका प्रेम प्रस्ताव ठुक्रदेती है , और फिर क्या ! बिछोह के गीतों की शुरुवात होती है । बिछोह प्रेम का अक बड़ा अद्भुत रूप है , और यह हिज्र विन्सेंट के गिवन मे मिल का पत्थर साबित हुवा जबकि उसका जीवन, उसकी कला इस पथर को साथ लेकर बहती रही और उसने इसी बिछोह से सबसे ज्यादा सिखा ।


अन्तोन माव और विन्सेंटके संवाद का एक छोटा सा अंश :-


विन्सेंट: मैंने एक कलाकार की तरह काम करने, सोने और खाने के सिवा कोई काम नहीं किया है आप इसे दुष्टता कहते है।
माव: तुम खुदको कलाकार कहते हो
विन्सेंट: हाँ
माव: क्या मखोल है तुमने जिंदगी मी एक चित्र भी नहीं बेचा
विन्सेंट: क्या मतलब होता है कलाकार होने का -- बेचना ? मे समझता था की इसका मतलब बिना कुछ पाए लगातार खोजते रहना होता हैं , मुझे पता है के जब मे कह रहा होता हूँ की मे एक कलाकार हु तब मे कहरह होता हु की मे खोज रहा हु ....
एक कलाकार की मूलतः खोज क्या होती हैं, वह चीज़ जिसे वह कला और प्रेम मे खोजता है ? कह नहीं सकते परन्तु कला के द्वारा उपजा खोज का भाव कलाकार को एक अपरीचित मार्ग का मानचित्र प्रदान करता है जिसके द्वारा एक कलाकार, एक प्रेमी, एक तपस्वी ऐसे तट पर पहुंचता है जिसे वह अपनी धरती, अपनी ही दुनिया कह सकता है ।
और विन्सेंट तो खुद मे यह तीनो था । आर्लेस का तपता हुवा सूर्य इस बात का गवाह है की वह कलाकार, एक प्रेमी तो था ही सबसे महत्वपूर्ण वह एक तपस्वी था ...एक कला तपस्वी।

लेकिन क्या एक आदमी को उसकी तपस्या का फल मिलता है ?क्या एक कलाकृति कलाकार की तपस्या का फल होती है ? पता नहीं लेकिन कलाकृति जबतक कलाकार को संतोष नहीं देती तब्तात यह उसका त्रास ही बनी रहती है । परन्तु सवाल यह है की व्न्सेंत के लिए उसकी कला संतोषजनक थी या नहीं ?
वह लन्दन मै रहा , बोरिनाज़ गया , द हेग मै जा बसा, ... आर्लेस ..... नुअनेन... । वह आर्ट गेलेरी मै कार्यरत रहा , बोरिनाज़ मै पादरी बनकर रहा वहा के गरीब लोगो की सेवा की , शिक्षक बना और सिर्फ रहने और खाने की सुविधाओ के लिए कम किया । पहली बार उसने बोरिनाज़ मै कोयले के टुकडो से स्केच बनाये और उसे पता लगा की एक ही कम उसे संतोष ददे सकता है ! वह काम हे चित्रकारी ।
चित्रकारी के अल्वा वह बाकि काम-धन्दो से वह कटता गया उन कामो से उसे तनिक भी संतोष नहीं था और वह निश्चित तोर पर जन गया था की संतोष हिउ आदमी की आखरी शरण है । उसने कला गेलेरियो काम किया था और उसे पता था की वह कितना घटिया मॉल बेच रहा हे , उर्सुला के अलगाव के बाद वह गुपिल्स आर्ट गेलेरी से बिना बताये ही चला गया उसके बाद उसने दार्द्रेख्त मै मै ब्लुसे एंड बरम की किताबो की दुकान पर क्लार्ल की नोकरी की
वह वहा चार माह रहा इसके बाद उसने एक अद्याप; की नोकरी की इस काम के बदले उसे रहने और खाने की व्यवस्था कराइ गई थी इसके बाद उसका झुकाव एइवन्जेलिस्त बनकर इस्वर की सेवा करने की और हुवा और वह लन्दन से अम्स्तार्दोम चला आया और वहा से बोरिनाज़।
बोरिनाज़-- जहा से विन्सेंट का असली सफ़र शुरू होता हे । यही वह जगाह थी जहा से विन्सेंट ने अपना सबकुछ रंगों के हवाले करने की ठान ली थी ।
विन्सेंट के समकालीनो मे एकमात्र विन्सेंट ने ही सबसे अधिक चित्रों की रचना की और चित्रकारी मे अपनी ही तरह की नई तकनीक लाय ''पोस्ट इम्प्रेशनिज्म''

विन्सेंट ने अपने जीवन के लिए जिन उपकरणों और साधनों का चुनाव किया `वह उसे एक साहसी व्यक्ति की नियति भी देते हे --
एक ''साहसी व्यक्ति'' कक उदघोश इस लिए क्योकि एक साहसी व्यक्ति के पास पाने को भाले कुछ हो न हो लेकिन खोने के लिए सदा सबकुश होता हे -- विन्सेंट ने जीवनभर खोया हे ...लेकिन फिरभी उसने जो पाया हे वह सबसे महत्वपूर्ण और मूल्यवान है , उसके जीवन का ग्राफ भले ही संकुचित व निम्न हो परन्तु उसकी कला-दृष्टी ने जीवन की हर संकुचन को विपरीत ही चित्रित किया है ठीक अपने बनाये चिड के पेड़ो की तरह , हमेशा एक महान उचाई की और उठते हुवे ।
वह इतने महान इसलिए भी हे क्योकि वह अपनी चित्रकला कई नई चीज़े लाऐ उन्होंने चित्रकला के निजी दर्शन को इजाद किया जो की उनके पत्रों और जीवन के बाबत हमें पटक लगता है । उसने इतन मे सुरुवाती स्केच बनाये और गलतियों को अपना गुरु बनाया ,वह निरंतर रेखाओ पर कम करता रहा विन्सेंट को शुरुवाती स्केच बनाते समय कोई नेसर्गिक प्रतिभा नही दिखी , वह इन्हें बनाने के लिए मशक्कत कारता रहा , उसने अपने पिता से कहा : ''प्रकुति हमेशा कलाकार के विद्रोह से शुरुवात करती हे , चीजों की जड़ मै प्रकुति और कलाकार सहमत होते है वर्षो की म्हणत और मशक्कत के बाद शायद प्रकृति मित्रतापूर्ण और सहायक बन जाती है पर अंत मै सबसे बुरा कम भी सबसे अच्छा काम मै तब्दील हो जाता हे और खुद को न्यायपूर्वक ठहरता हे । ''
उसने एक दोयम दर्जे की कलाकृति बनाने गंभीर साहित्य की समझ होना ज़रूरी जाना और उदघोश किया
''बिना हड्डियों और मांसपेशियों बारे में जाने मै किसी आकृति को नहीं बना सकता , मै एक व्यक्ति सर जबतक नहीं बना सकता जबतक मुझे पता न हो की उसके मन नम में और अत्त्मा में क्या चल रहा है , जीवन के चित्र बनाने के लिए अंतर्रचना को जानने के साथ ही यह भी पता होना ज़रूरी हे की लोग केसे सोचते और महसूस करते है
--उस दुनिया के बारे मै गिसमे वह रहते है , एक ऐसा कलाकार जो सिर्फ अपनी कला की बारीकियो को जनता है बिलकुल सतही कलाकार बनेगा ''
लेकिन क्या किताबो को पड़कर कोई ठीक पेंटिंग बना सकता हैं ? '' ऐसा तब ही होगा जब एक कलाकार किताब में लिखी बातो को क्रियान्वित कर सके '' फिरभी विन्सेंट यह जनता था की अब्ब्यास को किताबो के साथ नहीं ख़रीदा जा सकता ।
आप उसका पूरा काम देख सकते है वह सिर्फ अभ्यास के दोरान का काम है । वह भी सारा का सारा । बोरिनाज़ से लेकर सेंट रेमी तक उसकी यात्रा अभ्यास की यात्रा है । उसने सच में अपना जीवन एक साधक, एक तपस्वी , एक हठ योगी की तरह व्यतीत किया है । उसने कला में उथलेपन को दरकिनार किया और कला की बारीकियों से ज्यादा उसने जीवन की बारीकियों पर गोर किया । निश्चित ही विन्सेंट की कला जीवन को खोजती कला है ...(समाप्त)