Saturday, April 25, 2009

(लोर्का के लिए) शुशोभित की पोएम

चिनार के दरख्‍़त चुप हैं फ़ेदरीको...
(लोर्का के लिए)
तुम्‍हारी कविताओं की सरहद जहां तक पहुंचती है फ़ेदरीको
उतने ही बड़े साबित हुए हैं तुम्‍हारे पैर
ठहरे हुए और शोक में डूबे जूतों में दुबकी मौत
और काले गोश्‍त के कंधे को नंगे पैर लांघते
देहातियों के सूखे-दरारोंवाले चेहरों पर
लाल शराब की नशीली आंच की मानिंद फैल गए तुम
और तब्‍दील हो गए धरती की कड़वी और
हड्डियों तक छेद देने वाली आवाज़ में
तुम्‍हारा नाम एक परचम है फ़ेदरीको
गर्म-जवान ख़ून के धब्‍बों वाली
देहलीज़ पे लहराता परचम
जिस पे लिक्‍खा है- 'ला बाराका!'
तुम्‍हारे गीत औचक
गीली पत्तियों की तुर्श हवा में
कौंधते हैं
पानी की हर बूंद में
गितार के लोअर ऑक्‍तेव सरीखी
तुम्‍हारी आवाज़ को सूंघने की
कोशिश करते हैं हम
देज़ी के फूलों, मधुमक्खियों, धूसर मोतियों
और खिड़कियों से तारों का परदा हटाकर
ताकते हैं सीसे के आकाश में
अस्थिपंजरों के जबड़ों से सोने के दांत खींचकर
निकालने वाले हत्‍यारों को तुम
ज़ब्‍त नहीं हुए थे फ़ेदरीको
समुद्र की सलवटों पर सेब की तरह उछलते
छठे चांद की परछाई में कान लगाकर
अब भी सुनते हैं हम
ठहाकों की शराब में डूबे
तुम्‍हारे जंगली बैलेड
तुम्‍हारा नाम लेकर पुकारने वाले
चिनार के दरख्‍़त उसी रोज़ से ख़ामोश हैं
जब विज्‍़नार में देहात की दीवार के क़रीब
गहरे उजाले की उड़ती चीलों के नीचे
तुम गिर पड़े थे किसी कटे पेड़ की तरह
किसी अंदालूसी गीत की जिंदादिल गूंज
मेंदोलिन की उदास ख़ामोशी में गुम गई थी
इस्‍पहानी धरती की छाती चीरते
इस्‍पात के हलों ने ठिठकते हुए देखी थीं-
उखड़ी जड़ें नहीं, बल्कि मृत देहें
कड़वे शहद में लथपथ
और मैं, तुम्‍हारी आवाज़ का हरकारा
लिहाफ़ में छुपी तुम्‍हारी चिट्ठियों को
अपनी ज़बान के उजाले में लेकर आता रहा महीनों
सर्दियों की लंबी रातों में
और अक्‍सर मैंने चाहा है ख़ासी कसक के साथ
एक चिट्ठी लिखना तुम्‍हारे नाम
लालच और ज़ुल्‍म की खिलाफ़त में गवाही जैसी
कविताओं और कठपु‍तलियों के हक़ में
31, आसेरा देल कासिनो, ग्रानादा की इबारत बांचते
मैं भटकता रहता अंधेरे में
सिएरा नेवादा के पहाड़ चुपचाप खड़े रहते
तुम्‍हारा कोई तयशुदा पता नहीं मिलता
और नीबू के फूलों की भाप में
ख़ामोश तैरते रहते वेलेनसियन खेत
गुलाब की राख उड़ती रहती
तुम दुनिया की तमाम नदियों के पुलों को
अपने बड़े-बड़े नंगे पांवों से लांघते
समुद्री घास की नशीली गंध में
गुम हो जाते हो फ़ेदरीको
और अपनी बेचैन रूह के उसी बेमाप कुंए से
हमें आवाज़ देते रहते हो हरदम
जिससे संत थेरेसा ने अपना भीतरी किला गढ़ा था
जबकि हमारी बहरी और हत्‍यारी सदी
चाक़ू की चमकीली धार पर महज़
लड़खड़ाते खड़ीभर रह सकी है

मिलेना की मुस्कान पर मै तुम्हारे इंतज़ार मै हु


काफ्का के लिए
एक गंदिली दलदल के पानी-सा
एक दलदल जो खुदमे धसा है
न रहना चाहता है
न बह सकता है
अपने ही ऊपर बिछे आकाश से मोहित वह दलदल
स्वच्छंद आकाश को टकटकी बाँध कर देखता है
मनो कहता है ''आकाश ,रंग बदलता यह बड़ा सा-टुकडा
कभी बदलो से ढका कभी सूर्य का मुखडा ''

अपनी आसुओ की भाप से मोम की अभिलाशाओ को पिघलता जाता है
धसाता जाता है आकाश होने की आशाओ को
और एक आकाश एक दिन कीचड़ मे धस जाता है


बस एक कर्तव्य के मानिंद
वह खुश है
अपनी गुमसुम मुस्कान के साथ
हर क्षण कुछ-कुछ खोजती आखो के साथ
हर बात पर खिलखिलाते जेनुक के साथ
और मेरे साथ
वोह सिखाता है की
''इस दुःख भरी दुनिया मे खुश रहना भी एक कर्तव्य है ''

अपनी प्रार्थनाओ के परिंदे उडाता है
अपने दोस्तों की आखो मे झाककर
स्नेह से हर्षाता है
मिलना की मुस्कान के क्षितीज पर मै उसके इंतज़ार में हु

लगता है काफ्का की कब्र पर मै आज मै उग आया हु
एक घास के नन्हे तिनके की तरह
और उसकी कब्र की मिटटी को ताउम्र गिला रखुगा
अपनी ओठ मे जमे ऑस के पानी से
५-२-०९ को रात ३-००बजे


काफ्का से सराबोर होकर

Thursday, April 23, 2009

डा.; मञ्जूषा गांगुली की कविता

तय है की मै
शुन्य ,हवा,रेत, और धुल
की जगह लपक मरती कोध भी हो सकती हु

बंद खिड़की के शीशे की
धुल पर
दमकेदार फुक भी हो सहती हु


पगलाए अनघड की तरह
कितने ही बीहड़ की शताब्दीया यहाँ से... वहा तक...

हिला सकती हु
ताकि
चोकने की बरी
सबके साथ मेरी भी हो

Sunday, April 19, 2009

mispod


Friday, April 10, 2009

Wednesday, April 8, 2009

ज़ोरबा होने का मतलब

मानव मै सुख की भावना निहित है इसलिए न्यायसंगत भी है... तोलोस्तोय के ये शब्द वहा चोट करते है जहा बड़ी का सबसे कमज़ोर औरखास मुहाना है, उसके बाद सारी गठे खुद ब खुद ढीली हो जाती है

एक प्रपात की आगे जाकर दो धराए बनी एक बनी ज़ोरबा दी ग्रीक दूसरी है ज़ोरबा दी बुद्धा

मई मानता हु की मई दूसरी भावना के गदा करीब हु जबकि पहली भावना मुझे मात्र आकर्षित करती है

मुरारी बापू एक प्रवचन ,मे कह रहे थे की पति अपनी पत्नी से प्रेम करता है पत्नी की वजह से नहीं अपमे ही प्रेम निहित है हम उसे क्रीऐट न्बाही कर सकते ज़ोरबा एक ऐसा तत्व है जो मानव मे पहले से है निहित है और हम सब इसलिए ओस्से जुड़े है ओपचारिकता वश हम यह न भी कह सके तो भी हम है .........................zorba