दोस्तोवस्की के उपन्यास "क्राइम एंड पनिशमेंट" को पड़ चुकने के बाद मुझे प्रतीत हुवा कि यह पूरी कहानी एक भूलभुलैया है, और इस भूलभुलैया मे कई-कई दरवाजे है, सरे छद्मा द्वार, सिर्फ एक को छोड़कर... उस द्वार के पीछे आखिर क्या हो सकता है?
पुरे एक साल मै इस भूलभुलैया मै भटकता रहा उस एकमात्र सही दरवाजे कि ताकाश मे किन्तु मुझे मालूम न था कि आखिर उस दरवाजे के पीछे क्या होगा? इस किताब मे मौजूद सरे दरवाजे मेने इस एक साल मे खोलकर देख डाले, किन्तु सारे दरवाजों के पीछे एक लम्बी और भीमकाय दीवार के आलावा कुछ नहीं था।
पुष्ठो ३६८ से ३८४ के बिच एक दरवाज़ा है। इन पुष्ठो
के बिच ही रस्कोलनिकोव सोनिया के समक्ष अपना अपराध स्वीकार करता है कि 'उसने ही उस खूसट सूदखोर बुढी़या की हत्या की' और 'क्यू' ? उस की दलीलों मे वह दरवाज़ा मौजूद है। इस दरवाजे को खोलने के बाद मुझे मालूम हुवा कि "क्राइम एंड पनिशमेंट" के असली दस्तावेज़ तो दोस्तोवस्की ने यहाँ इस गुप्त द्वार के पीछे छुपा रक्खे है...दोस्तोवस्की कि असली कहानी इस द्वार के पीछे मोजूद है। उस कहानी मे न रस्कोलनिकोव मोजूद है, न वह बूढी सूदखोर महिला, न ही मजलूम सोनिया....सिर्फ एक अपराध-भाव मोजूद है, वह अपराध-बोध किसी की मृत्यु से नहीं नहीं गोया जीवन की मूल्यहीनता से उपजा है।
Sunday, June 10, 2012
Friday, May 25, 2012
कविता के पक्ष मे
'नदी, पहाड़, फसल, किनारे
बादल, बस्ती, बचपन, बयारे'
यह सब और कुछ नहीं
चहरे है कहानियों मे।
और कथा एक गाँव है।
जिसे लेखक आबाद करता है ,
मिलो पृष्ठ उसमे बसता है
और वहा चिपकता है
कई चेहरे अपने इतिहास के।
वह चेहरे हे जेसे खोखल मे जमा बरसात का पानी,
लेखक की स्याही उसी पानी से बनी है
जबकि मै औ कोंध तुम्हारा पुजारी हूँ
इसलिए मै करता हूँ तुम्हारा आह्वाहन
बार बार, सालों से
क्योंकी मेरी कविता मुझमे कोंध सी प्रकट होती है
शब्दातीत, एक खालिस ध्वनी
सिर्फ एक तडकती गडगडाहट
जिसका कोई नाम नहीं
न ही कोई चेहरा
और कविता मे शब्द होते है
जेसे तेज़ बहते पानी पर बहती कागज़ की नावें
लव
बादल, बस्ती, बचपन, बयारे'
यह सब और कुछ नहीं
चहरे है कहानियों मे।
और कथा एक गाँव है।
जिसे लेखक आबाद करता है ,
मिलो पृष्ठ उसमे बसता है
और वहा चिपकता है
कई चेहरे अपने इतिहास के।
वह चेहरे हे जेसे खोखल मे जमा बरसात का पानी,
लेखक की स्याही उसी पानी से बनी है
जबकि मै औ कोंध तुम्हारा पुजारी हूँ
इसलिए मै करता हूँ तुम्हारा आह्वाहन
बार बार, सालों से
क्योंकी मेरी कविता मुझमे कोंध सी प्रकट होती है
शब्दातीत, एक खालिस ध्वनी
सिर्फ एक तडकती गडगडाहट
जिसका कोई नाम नहीं
न ही कोई चेहरा
और कविता मे शब्द होते है
जेसे तेज़ बहते पानी पर बहती कागज़ की नावें
लव
Saturday, May 19, 2012
Saturday, May 5, 2012
वह नींद मै है...
जबतक वह नींद मे है
तब तक शोरगुल चुप्पी ओढ़े सो रहा है
और मस्ती थमी हुई गाडियों के साथ
आराम अरमा रही है
जबतक वह नींद मे है
भागमभाग स्टेंड पर खाड़ी
साईकिल कि तरह सुस्ता रही है
और सरे हठ सन्यासियों जेसी आंखे मूंदे
इच्छाओ के पर चले गए है
जबतक वह नींद मे है
शांति रानी बन बेठी है लेकिन
हर पाल उसे अपने राज पर
एक खतरा सा महसूस होता है
और बंद पलकों पर टिका
उसका सिंहासन डोलता रहता है
जबतक वह नींद मे है...
--हेमंत देवलेकर
जबतक वह नींद मे है
तब तक शोरगुल चुप्पी ओढ़े सो रहा है
और मस्ती थमी हुई गाडियों के साथ
आराम अरमा रही है
जबतक वह नींद मे है
भागमभाग स्टेंड पर खाड़ी
साईकिल कि तरह सुस्ता रही है
और सरे हठ सन्यासियों जेसी आंखे मूंदे
इच्छाओ के पर चले गए है
जबतक वह नींद मे है
शांति रानी बन बेठी है लेकिन
हर पाल उसे अपने राज पर
एक खतरा सा महसूस होता है
और बंद पलकों पर टिका
उसका सिंहासन डोलता रहता है
जबतक वह नींद मे है...
--हेमंत देवलेकर
Friday, May 4, 2012
शहर झूट बोलता है
चाँद एक उदास जलतरंग है
जलतरंग का एक बड़ा सा कटोरा
और चांदनी उससे बहता
एक उजाड़-सा राग है
साँझ की शाखों मे समाहित हो चूका है
दिवस का सारा कोतुहल
इसलिए पत्तियां अब महज़ पर्छाइयाँ भर है
जिस पर दिपती है उजाड़ राग की प्रतिछाया
सच मे चाँद इतिहास का सबसे उदास प्राणी है
वोह बंजारों के उदास गीत गता है
अपना मुंडा हुवा सर टहनियों से टिकाए
गोया शहर झूट बोलता है
उसकी व्यस्तता उसका प्रबल ढोंग है
वह उदास चाँद को देखता नहीं जानकर
जानकर नहीं सुनता उसका गीत
शहर इस कदर व्यस्त है
कि अपनी व्यस्तताओ से वह एक दिन
मनो पा जायेगा सत्य को
वह जानकर नहीं देखता ...
उसे अपनी रिक्तता का आभास है
शायद इस लिए!
किन्तु वह जतलाना नहीं चाहता खुदको भी
शायद उसे डर है
कि कही वह चटख न जाए उसका
भ्रम का आईना
एक रात जब सो चुकी थी सारी गलियां
और चोराहे
स्ट्रीट लेम्प जो मोहल्लो कि आंखे है
किसी रात के चोकीदार कि तरह उंघ रही थी
खुलती और झपकती थी उसकी पलके
और फिर बंद हो जाया करती
और रात के वैभव से परेशान कुत्ते
उसे अपनी भोंक से जगाने की
कोशिश मे थे निरंतर
उसी रात अपनी दोमुंही छत से तकते हुवे
मेने देखा
बंधा हुवा किसी जादू से शहर चुपके से चला जा रहा है
उस उजाड़ राग की आवाज़ के पीछे-पीछे
उस रात के कुछ आखरी पहरों मे
शहर अपनी गलियों को छोड़ जाता है
शहर अपना दम रोक लेता है
थाम देता है अपनी नब्ज़ की थरथाराह्टो को
और चाँद के गले मे हाथ डाले
चाँद के साथ
निकल पड़ता है शहर छोडती सुदूर राहों पर
--लव वर्मा
जलतरंग का एक बड़ा सा कटोरा
और चांदनी उससे बहता
एक उजाड़-सा राग है
साँझ की शाखों मे समाहित हो चूका है
दिवस का सारा कोतुहल
इसलिए पत्तियां अब महज़ पर्छाइयाँ भर है
जिस पर दिपती है उजाड़ राग की प्रतिछाया
सच मे चाँद इतिहास का सबसे उदास प्राणी है
वोह बंजारों के उदास गीत गता है
अपना मुंडा हुवा सर टहनियों से टिकाए
गोया शहर झूट बोलता है
उसकी व्यस्तता उसका प्रबल ढोंग है
वह उदास चाँद को देखता नहीं जानकर
जानकर नहीं सुनता उसका गीत
शहर इस कदर व्यस्त है
कि अपनी व्यस्तताओ से वह एक दिन
मनो पा जायेगा सत्य को
वह जानकर नहीं देखता ...
उसे अपनी रिक्तता का आभास है
शायद इस लिए!
किन्तु वह जतलाना नहीं चाहता खुदको भी
शायद उसे डर है
कि कही वह चटख न जाए उसका
भ्रम का आईना
एक रात जब सो चुकी थी सारी गलियां
और चोराहे
स्ट्रीट लेम्प जो मोहल्लो कि आंखे है
किसी रात के चोकीदार कि तरह उंघ रही थी
खुलती और झपकती थी उसकी पलके
और फिर बंद हो जाया करती
और रात के वैभव से परेशान कुत्ते
उसे अपनी भोंक से जगाने की
कोशिश मे थे निरंतर
उसी रात अपनी दोमुंही छत से तकते हुवे
मेने देखा
बंधा हुवा किसी जादू से शहर चुपके से चला जा रहा है
उस उजाड़ राग की आवाज़ के पीछे-पीछे
उस रात के कुछ आखरी पहरों मे
शहर अपनी गलियों को छोड़ जाता है
शहर अपना दम रोक लेता है
थाम देता है अपनी नब्ज़ की थरथाराह्टो को
और चाँद के गले मे हाथ डाले
चाँद के साथ
निकल पड़ता है शहर छोडती सुदूर राहों पर
--लव वर्मा
Tuesday, April 24, 2012
एक लम्बी और शांत गली
मै अँधेरे में चलता हूँ, लडखडाता हूँ
और उठता हूँ, और चलता हूँ बिना देखे शांत पत्थरो
और सूखे पत्तो पर पड़ते है मेरे पैर
कोई मेरे पीछे चल रहा है, पत्थरो,पत्तो पर पेर रखता
मै धीमा चलूँ तो वह धीमा चलता है
मै दोंडू तो वह दोंड़ता है, मै मुड़ता हूँ; कोई नहीं
इन मोड़ पर और और मुड़ते हुवे जो जाते है गली की और
जहा कोई नहीं कटा मेरा इंतज़ार, कोई नहीं करता मेरा पीछा
जहा मै पीछा करता हूँ एक आदमी का जो लडखडाता है
और उठता है और जब देखता है मुझे,कहता है; कोई नहीं --पाज़
मै अँधेरे में चलता हूँ, लडखडाता हूँ
और उठता हूँ, और चलता हूँ बिना देखे शांत पत्थरो
और सूखे पत्तो पर पड़ते है मेरे पैर
कोई मेरे पीछे चल रहा है, पत्थरो,पत्तो पर पेर रखता
मै धीमा चलूँ तो वह धीमा चलता है
मै दोंडू तो वह दोंड़ता है, मै मुड़ता हूँ; कोई नहीं
इन मोड़ पर और और मुड़ते हुवे जो जाते है गली की और
जहा कोई नहीं कटा मेरा इंतज़ार, कोई नहीं करता मेरा पीछा
जहा मै पीछा करता हूँ एक आदमी का जो लडखडाता है
और उठता है और जब देखता है मुझे,कहता है; कोई नहीं --पाज़
Tuesday, April 3, 2012
(निर्मल का उपन्यास पड़ने के बाद)
एक चिथड़ा सुख
चुप,सुलगते बिम्ब, जो बिम्बों से नहीं
छवियों से है।
और उनके बोलते दायरे
जो विस्तृत होकर भी
छोटे संकरे गलियारों से है।
एक चिथड़ा सुख... असमानों का,
उसके बिम्बों का और
बिम्बों के दायरों का।
धुप, छाव और धुंध
है तलाश मै एक दूजे की।
तलाश! बंद मुट्ठी मै सोया स्वप्न।
जिसे जगाना है असंभव
वह स्वप्न बस अपने ही दिवास्वप्न मे
वोह तलाश पूरी करता है।
एक चिथड़ा सुख.....धुप, छाव, और धुंध का।
समय कि सुरंग मै बहते हम
एक दूजे का हाथ थाम कर भी
किन्ही दूसरी दिशाओं मे बहते जाते है
इस सुरंग मे क्यों बहते जाते है हम ?
पता नहीं कहां पहुचते है? लेकिन
कोई खिचता जाता है अन्थो दिशाओ से हमें।
चार से समय
चार से सुख
एक चिथड़ा सुख..... सुबह से शाम...रात से दिन...
एक चिथड़ा सुख
चुप,सुलगते बिम्ब, जो बिम्बों से नहीं
छवियों से है।
और उनके बोलते दायरे
जो विस्तृत होकर भी
छोटे संकरे गलियारों से है।
एक चिथड़ा सुख... असमानों का,
उसके बिम्बों का और
बिम्बों के दायरों का।
धुप, छाव और धुंध
है तलाश मै एक दूजे की।
तलाश! बंद मुट्ठी मै सोया स्वप्न।
जिसे जगाना है असंभव
वह स्वप्न बस अपने ही दिवास्वप्न मे
वोह तलाश पूरी करता है।
एक चिथड़ा सुख.....धुप, छाव, और धुंध का।
समय कि सुरंग मै बहते हम
एक दूजे का हाथ थाम कर भी
किन्ही दूसरी दिशाओं मे बहते जाते है
इस सुरंग मे क्यों बहते जाते है हम ?
पता नहीं कहां पहुचते है? लेकिन
कोई खिचता जाता है अन्थो दिशाओ से हमें।
चार से समय
चार से सुख
एक चिथड़ा सुख..... सुबह से शाम...रात से दिन...
Sunday, March 25, 2012
अनुराग भाई और दोस्तों,
सरे तथाकथित धर्म और धार्मिक लोग इस वाक्य से चुक गए है। जब हरी अनंत है और हरी कथा भी तो हरी और हरी कथा परस्पर कही भी मोजूद हो सकते है। वोह कथा गीता मे मोजूद हो सकती है, कुरान मे, बाईबल मे, धम्पद मे, तोलोस्तोय के वार एंड पिस मे,पुनरुथान मे, अन्ना केरिनिना मे, दोस्तोवस्की के अपराध और दंड मे, काफ्का के मेटामोरफौसीस मे, इन द पेनल कालोनी मे, उन कि लघु कथाओ मे, उन के संवादों मे, उन के पत्रों मे, वान गौघ की जीवनी मे,ओलेनिनिं के प्रेम मे, सूफियों के हिज्र मे, कही भी।
सदर वन्दे
सरे तथाकथित धर्म और धार्मिक लोग इस वाक्य से चुक गए है। जब हरी अनंत है और हरी कथा भी तो हरी और हरी कथा परस्पर कही भी मोजूद हो सकते है। वोह कथा गीता मे मोजूद हो सकती है, कुरान मे, बाईबल मे, धम्पद मे, तोलोस्तोय के वार एंड पिस मे,पुनरुथान मे, अन्ना केरिनिना मे, दोस्तोवस्की के अपराध और दंड मे, काफ्का के मेटामोरफौसीस मे, इन द पेनल कालोनी मे, उन कि लघु कथाओ मे, उन के संवादों मे, उन के पत्रों मे, वान गौघ की जीवनी मे,ओलेनिनिं के प्रेम मे, सूफियों के हिज्र मे, कही भी।
सदर वन्दे
Friday, March 16, 2012
विवेकानंद को युवाओ के प्रतिक के रूप मै देखा जाता है, उन पर पश्चिम बंगाल मै ढेरो किताबे सालाना प्रकाशित होती है, वे एक नास्तिक थे, वे एक सन्यासी भी थे, वे बेहद उन्दा रसोइये भी थे, वे हिन्दूवादियों के पोस्टर बॉय भी है, विवेकानंद का व्यक्तित्व सदा ही प्रासंगिक रहा है, लेकिन उनमे व्याप्त कवित्त (काव्य तत्व) की चर्चा बहुत कम हुई है।
उन की यह कविता यहाँ प्रतुत कर रहा हूँ जिससे हमें यह ज्ञात होता है की किस तरह एक सन्यासी मे भी कविता की धारा विस्तारीत होती है -:
शांति
देखो जो बलात आती है,
वह शक्ति शक्ति नहीं है।
वह प्रकाश प्रकाश नहीं है,
जो अँधेरे के भीतर है,
और न वह छाया, छाया ही है
जो चकाचोंध करने वाले
प्रकाश के साथ है।
वह आनंद है, जो कभी व्यक्त नहीं हुवा
और अनभोगा, गहन दुःख है
अमर जीवन जो, जिया नहीं गया
और अनंत मृत्यु, जिस पर -
किसी को शोक नहीं हुवा।
न दुःख है, न सुख
सत्य वह है,
जो इन्हें मिलाता है।
न रात है, न प्रात
सत्य वह है,
जो इन्हें जोड़ता है।
वह संगीत मे मधुर विराम,
पावन छंद के बिच यति है,
मुखरता के मध्य मोन,
वासनाओ के विस्फोट के बिच
ह्रदय की शांति है।
सुन्दरता वह है जो देखी न जा सके।
प्रेम वह है जो अकेला रहे।
गीत वह है, जो जिए, बिना गाये।
ज्ञान वह है जो कभी जाना न जाए।
जो दो प्राणों के बिच मृत्यु है,
और दो तुफानो के बिच एक स्तब्धता है,
वह शुन्य जहा से सॄश्टि आती है
और जहा वह लौट जाती है ।
वाही अस्रुबिंदु का अवसान होता है,
प्रसन्न रूप को प्रस्फुटित करने को
वाही जीवन का चरम लक्ष है,
और शांति ही एकमात्र शरण है।
उन की यह कविता यहाँ प्रतुत कर रहा हूँ जिससे हमें यह ज्ञात होता है की किस तरह एक सन्यासी मे भी कविता की धारा विस्तारीत होती है -:
शांति
देखो जो बलात आती है,
वह शक्ति शक्ति नहीं है।
वह प्रकाश प्रकाश नहीं है,
जो अँधेरे के भीतर है,
और न वह छाया, छाया ही है
जो चकाचोंध करने वाले
प्रकाश के साथ है।
वह आनंद है, जो कभी व्यक्त नहीं हुवा
और अनभोगा, गहन दुःख है
अमर जीवन जो, जिया नहीं गया
और अनंत मृत्यु, जिस पर -
किसी को शोक नहीं हुवा।
न दुःख है, न सुख
सत्य वह है,
जो इन्हें मिलाता है।
न रात है, न प्रात
सत्य वह है,
जो इन्हें जोड़ता है।
वह संगीत मे मधुर विराम,
पावन छंद के बिच यति है,
मुखरता के मध्य मोन,
वासनाओ के विस्फोट के बिच
ह्रदय की शांति है।
सुन्दरता वह है जो देखी न जा सके।
प्रेम वह है जो अकेला रहे।
गीत वह है, जो जिए, बिना गाये।
ज्ञान वह है जो कभी जाना न जाए।
जो दो प्राणों के बिच मृत्यु है,
और दो तुफानो के बिच एक स्तब्धता है,
वह शुन्य जहा से सॄश्टि आती है
और जहा वह लौट जाती है ।
वाही अस्रुबिंदु का अवसान होता है,
प्रसन्न रूप को प्रस्फुटित करने को
वाही जीवन का चरम लक्ष है,
और शांति ही एकमात्र शरण है।
Thursday, March 15, 2012
(गीत चतुर्वेदी की कहानी "साहब है रंगरेज़" पड़ने के बाद।)
अभागे है प्रेमी लोग
ओह प्रेम !
तुम एक असीम इन्द्रधनुष हो
असंख्य रंगों वाले,
लेकिन प्रेमी लोग अभागे है।
वह तुम पर चलते-टहलते हुवे भी
स्पर्श कर पते है
तुम्हारे किसी एक रंग को ही।
कभी वे चलते है तुम्हारी लाल पकदंडीयो पर,
कभी वे मिलकर हरी पर होते है साथ साथ ,
और कभी एक पिली पर होता है तो
दूजा काली पर।
अदभूत है यहाँ चलना, यहाँ टहलना,
विस्मय से भरा,
लेकिन प्रेमी लोग कभी न जान पाए
तुम्हारे पूर्ण वुत्त को।
प्रेम मे डुबे संपूर्ण प्रेमी वे है
जो जानते है इन्द्रधनुष होना ।
वे ही चदा पते है परस्पर
अपने हृदयों पर प्रत्यंचा
अभागे है प्रेमी लोग
ओह प्रेम !
तुम एक असीम इन्द्रधनुष हो
असंख्य रंगों वाले,
लेकिन प्रेमी लोग अभागे है।
वह तुम पर चलते-टहलते हुवे भी
स्पर्श कर पते है
तुम्हारे किसी एक रंग को ही।
कभी वे चलते है तुम्हारी लाल पकदंडीयो पर,
कभी वे मिलकर हरी पर होते है साथ साथ ,
और कभी एक पिली पर होता है तो
दूजा काली पर।
अदभूत है यहाँ चलना, यहाँ टहलना,
विस्मय से भरा,
लेकिन प्रेमी लोग कभी न जान पाए
तुम्हारे पूर्ण वुत्त को।
प्रेम मे डुबे संपूर्ण प्रेमी वे है
जो जानते है इन्द्रधनुष होना ।
वे ही चदा पते है परस्पर
अपने हृदयों पर प्रत्यंचा
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