Thursday, April 23, 2009

डा.; मञ्जूषा गांगुली की कविता

तय है की मै
शुन्य ,हवा,रेत, और धुल
की जगह लपक मरती कोध भी हो सकती हु

बंद खिड़की के शीशे की
धुल पर
दमकेदार फुक भी हो सहती हु


पगलाए अनघड की तरह
कितने ही बीहड़ की शताब्दीया यहाँ से... वहा तक...

हिला सकती हु
ताकि
चोकने की बरी
सबके साथ मेरी भी हो

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