Sunday, June 14, 2009

लोर्का के लोक गीत



  1. जब चांद उगता हैघंटियाँ मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैंऔर दुर्गम रास्ते नज़र आते हैंजब चांद उगता हैसमन्दर पृथ्वी को ढक लेता हैऔर हृदय अनन्त मेंएक टापू की तरह लगता हैपूरे चांद के नीचेकोई नारंगी नहीं खातावह वक़्त हरे और बर्फ़ीले फलखाने का होता हैजब एक ही जैसेसौ चेहरों वाला चांद उगता हैतो जेब में पड़े चांदी के सिक्केसिसकते हैं !अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे
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    गुलाब ने सुबह नहीं चाही अपनी डाली पर चिरन्तनउसने दूसरी चीज़ चाहीगुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहेसाँप और स्वप्न की उस सीमा से दूसरी चीज़ चाहीगुलाब ने गुलाब नहीं चाहाआकाश में अचलउसने दूसरी चीज़ चाही !

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    लकड़हारे मेरी छाया काटमुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा सेमुक्त कर !मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ ?दिन मेरी परिक्रमा करता हैऔर रात अपने हर सितारे मेंमेरा अक्स फिर बनाती हैमैं ख़ुद को देखे बग़ैर ज़िन्दा रहना चाहता हूँऔर सपना देखूंगाकि चींटियाँ और गिद्ध मेरी पत्तियाँ और चिड़ियाँ हैंलकड़हारे मेरी छाया काटमुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा सेमुक्त कर !

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    पहाड़ियाँ चाहती हैं पानी हो जायेंऔर पीठ में खोजती हैं वेटिकने के लिएसितारे

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