Tuesday, June 30, 2009

एक गंदिली दलदल के पानी-सा
एक दलदल जो खुदमे धसी है
न रहना चाहती है
न बह सकती है
अपने ही ऊपर बिछे आकाश से मोहित वो दलदल
स्वच्छंद आकाश को टकटकी बाँध कर देखती है
मनो कहता है ''आकाश ,रंग बदलता यह बड़ा सा-टुकडा
कभी बदलो से ढका कभी सूर्य का मुखडा ''

अपनी आसुओ की भाप से मोम की अभिलाशाओ को पिघलता जाता है
धसता जाता है आकाश होने की आशाओ को
और एक आकाश एक दिन कीचड़ मे धस जाता है


बस एक कर्तव्य के मानिंद
वह खुश है
अपनी गुमसुम मुस्कान के साथ
हर क्षण कुछ-कुछ खोजती आखो के साथ
हर बात पर खिलखिलाते जेनुक के साथ
और मेरे साथ
वोह सिखाता है की
''इस दुःख भरी दुनिया मे खुश रहना भी एक कर्तव्य है ''

अपनी प्रार्थनाओ के परिंदे उडाता है
अपने दोस्तों की आखो मे झाककर
स्नेह से हर्षाता है
मिलेना की मुस्कान के शितीग पर मे उसके इंतज़ार में हु

लगता है काफ्का की कब्र पर मै आज मै उग आया हु
एक घास के नन्हे तिनके की तरह
और उसकी कब्र की मिटटी को ताउम्र गिला रखुगा
अपनी ओठ मे जमे ओस के पानी से

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५-२-०९ को रात ३-००बजे


काफ्का से सराबोर होकर

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