Wednesday, September 30, 2009

सोच के बीचोबीच एक अबाबील आकर गिरती है


दोपहर के बाद दफ़्तर अपनी दीवारें बदलता है
ढहता है एक अधूरा पुल और निशानदेही के साथ
काटे जाते हैं दिन के दरख्‍़त
मैं एक गुलाबी रंग को एक गुलाबी रंग की तरह
पहचानने से इनकार करता हूं
आलपिनों से छिदे हुए क्षितिज पर केंचुल की तरह
मैं टांगता हूं अपनी उतरी हुई परछाइयां
एक किताब के बीच कोई मकड़ी दबकर मर जाती है
और मैं मकड़ी के जालों से बुनी
किताब की जिल्‍दें उधेड़ने लगता हूं
ठीक समय पर सुबह किसी सायरन की तरह बजती है
और मैं सांसों की खोह में सायरन की चेतावनी का
कविता की शक्‍़ल में ग़लत तर्जुमा करता हूं
सांसों की वो खोह बहुत गहरी है सांप के पेट की मानिंद
जो मुझे निगलती है और मैं अस्थियों का मुकुट पहने डूबता रहता हूं
एक आवाज़ मेरी डेस्‍क पर आकर गिरती है
जिसे मैं दस हाथ की दूरी से देखता हूं
भौंहों की धुंध के बीच औंधी पड़ी रहती हैं संगीन चुप्‍पी की तश्‍तरियां
अंधेरे में उसके चश्‍मों के शीशे उसकी आंखों से ज्‍़यादा चमकते हैं
मैं उसे सोचता हूं और सोच के बीच एक अबाबील आकर गिरती है
जिसे मैंने कभी उसके असंभव समुद्र में
नक्‍़शों से लदी किसी नाव की तरह पहचाना था
एक गुंजाइश और एक ट्रेन मेरी नज़र के सामने से छूट जाती है
मैं पटरियों से उसके छूट जाने के निशान नहीं मिटाता
शल्‍कों और शैवालों से भरा एक दरिया मेरे भीतर से होकर गुज़रता है
मैं वमन करता हूं विचार और निगलता हूं सीढियां और सड़कें
मेरी पीठ पर एक गिरगिट रेंगता है, और वो है मेरा वक्‍़त
शहर के चौराहे पर ट्रैफिक महक़मे का रंगरूट
नई गाली ईज़ाद करता है और मैं उसे ज़रूरी चीज़ों के बीच
एक हिदायत और एक नुस्‍ख़े की तरह नत्‍थी कर देता हूं
दुनिया के अंतिम पत्‍थर के पास
मुझे एक रक्‍तरंजित देवता का शव मिलता है
मैं उसके झुलसे हुए पंख देखता हूं और मेरी आंखें
झाडियों में गेंद की तरह गुम जाती हैं
मैं उन्‍हें ढूंढता नहीं, न शव की शिनाख्‍़त करता हूं
इस दौरान अख़बारों के रोज़नामचों से
हटाई जाती रहती हैं ख़बरें और दीगर तफ़सीलें
जिनके अंतराल में चींटियों की एक क़तार अंडे देती है
और हमेशा चुप रहती है अपनी इस हरकत तक के बाबत
और रेंगती रहती है, रेंगती रहती है
सब कुछ के इस तरफ़ एक उधड़ी लकीर बुनती हुई
जिससे पैबंद सिए जाते हैं, जो और कुछ नहीं
मृत देवता के ज़ख्‍़मों की ही एक नई नुमाइश थे...
12 मई, 2009

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