Tuesday, April 3, 2012

(निर्मल का उपन्यास पड़ने के बाद)
एक चिथड़ा सुख

चुप,सुलगते बिम्ब, जो बिम्बों से नहीं
छवियों से है।
और उनके बोलते दायरे
जो विस्तृत होकर भी
छोटे संकरे गलियारों से है।

एक चिथड़ा सुख... असमानों का,
उसके बिम्बों का और
बिम्बों के दायरों का।

धुप, छाव और धुंध
है तलाश मै एक दूजे की।
तलाश! बंद मुट्ठी मै सोया स्वप्न।
जिसे जगाना है असंभव
वह स्वप्न बस अपने ही दिवास्वप्न मे
वोह तलाश पूरी करता है।

एक चिथड़ा सुख.....धुप, छाव, और धुंध का।

समय कि सुरंग मै बहते हम
एक दूजे का हाथ थाम कर भी
किन्ही दूसरी दिशाओं मे बहते जाते है
इस सुरंग मे क्यों बहते जाते है हम ?
पता नहीं कहां पहुचते है? लेकिन
कोई खिचता जाता है अन्थो दिशाओ से हमें।

चार से समय
चार से सुख
एक चिथड़ा सुख..... सुबह से शाम...रात से दिन...

No comments:

Post a Comment