Friday, May 4, 2012

शहर झूट बोलता है

चाँद एक उदास जलतरंग है
जलतरंग का एक बड़ा सा कटोरा
और चांदनी उससे बहता
एक उजाड़-सा राग है
साँझ की शाखों मे समाहित हो चूका है
दिवस का सारा कोतुहल
इसलिए पत्तियां अब महज़ पर्छाइयाँ भर है
जिस पर दिपती है उजाड़ राग की प्रतिछाया

सच मे चाँद इतिहास का सबसे उदास प्राणी है
वोह बंजारों के उदास गीत गता है
अपना मुंडा हुवा सर टहनियों से टिकाए

गोया शहर झूट बोलता है
उसकी व्यस्तता उसका प्रबल ढोंग है
वह उदास चाँद को देखता नहीं जानकर
जानकर नहीं सुनता उसका गीत
शहर इस कदर व्यस्त है
कि अपनी व्यस्तताओ से वह एक दिन
मनो पा जायेगा सत्य को
वह जानकर नहीं देखता ...
उसे अपनी रिक्तता का आभास है
शायद इस लिए!
किन्तु वह जतलाना नहीं चाहता खुदको भी
शायद उसे डर है
कि कही वह चटख न जाए उसका
भ्रम का आईना

एक रात जब सो चुकी थी सारी गलियां
और चोराहे
स्ट्रीट लेम्प जो मोहल्लो कि आंखे है
किसी रात के चोकीदार कि तरह उंघ रही थी
खुलती और झपकती थी उसकी पलके
और फिर बंद हो जाया करती
और रात के वैभव से परेशान कुत्ते
उसे अपनी भोंक से जगाने की
कोशिश मे थे निरंतर
उसी रात अपनी दोमुंही छत से तकते हुवे
मेने देखा
बंधा हुवा किसी जादू से शहर चुपके से चला जा रहा है
उस उजाड़ राग की आवाज़ के पीछे-पीछे

उस रात के कुछ आखरी पहरों मे
शहर अपनी गलियों को छोड़ जाता है
शहर अपना दम रोक लेता है
थाम देता है अपनी नब्ज़ की थरथाराह्टो को
और चाँद के गले मे हाथ डाले
चाँद के साथ
निकल पड़ता है शहर छोडती सुदूर राहों पर
--लव वर्मा



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